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________________ पवयणसारो ] [ ८५ विरुद्धपमा (भिन्नपना) होने से विरोध का प्रसंग नहीं है। जैसे वास्तव में प्रकाश्यता को प्राप्त पर (अध्यों) को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक दीपक के अपने प्रकाशित करने में, अन्य प्रकाशक को ढूंढने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि (उसके) स्वयमेव प्रकाशक क्रिया की प्राप्ति है (अर्थात् वह ज्ञान स्वयं प्रकाशमय है) इस ही प्रकार ज्ञेयता को प्राप्त पर (पदापों) को जानने वाले ज्ञाता आत्मा के अपने ज्ञेय में (अपने को जानने-पने में अन्य जानने वाले (जायक) को ढंढने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि (उसके) स्वयमेव ज्ञानक्रिया की प्राप्ति है (अर्थात् वह स्वयं ज्ञानमय है)। इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञान स्व को भी जानता है। प्रश्न-आत्मा के द्रव्यों की ज्ञानरूपता (जानपना) और द्रव्यों के आत्मा की जयरूपता (जानपना) किस कारण से है ? उत्तर-थे (ज्ञायक आत्मा और द्रव्य) परिणाम वाले होने से । क्योंकि वास्तव में आत्मा और द्रच्च परिभानों के साथ संबन्धित है, इसलिये आत्मा के, द्रव्य जिसका आलम्बन है ऐसे, ज्ञानरूप से परिणति और द्रव्यों के, ज्ञान को आलम्बन लेकर ज्ञेयाकार रूप से परिणति अबाधित रूप से बनती है। तात्पर्यवत्ति अथात्मा ज्ञानं भवति शेषं तु यमित्यावेदयति,-- तम्हा जाणं जीवो यस्मादात्मवोपादानरूपेण ज्ञान परिणमति तथैव पदार्थान् परिछिनत्ति, इति भणितं पूर्वसूत्र । तस्मादात्मैव ज्ञानं यं वयं तस्य ज्ञानरूपस्यात्मनो ज्ञेयं भवति । कि? द्रव्यम् । सिहा समक्खादं तच्च द्रव्यं कालत्रयपर्यायपरिणतिरूपेण द्रव्यगुणपर्याय रूपेण वा तथैवोत्पादव्ययधोव्य. रूपेण च विधा समाख्यातम् । दरवत्ति पुणो आवा परं च तच्च ज्ञेयभूतं द्रध्यमात्मा भवति । परं च । कस्मात् ? यतो ज्ञानं स्वं जानाति परं चेति प्रदीपवत् । तच्च स्वपरद्रव्यं कथंभूतं ? परिणामसंबई कथंचित्परिणामीत्यर्थः । नैयायिकमतानुसारी कश्चिदाह-ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात् घटादिवत् परिहारमाह-प्रदीपेन व्यभिचारः, प्रदीपस्तावत्प्रमेयः परिच्छेद्यो ज्ञेयो भवति न च प्रदीपान्तरेण प्रकाश्यते, तथा ज्ञानमपि स्वयमेवात्मानं प्रकाशयति न च ज्ञानान्तरेण प्रकाश्यते। यदि पुनसानान्तरेण प्रकाश्यते । तहि गगनावलम्बिनी महतो दुनिवारानवस्था प्राप्नोतीति सूत्रार्थः ।।३६।। एवं निश्चयश्रुतकेवलि व्यवहारश्रुत केवलिकथनमुख्यत्वेन भिन्नज्ञाननिराकणेन ज्ञामज्ञे यस्त्ररूपकथनेन च चतुर्थस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । उत्थानिका-आगे बताते हैं कि आत्मा ज्ञान रूप है तथा अन्य सर्व ज्ञेय हैं अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय का भेद प्रगट करते हैं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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