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________________ पक्य गसारो 1 ज्ञानमित्यायाति । अथ सूत्रमुपाधियानाद्रियते। ज्ञप्तिरेवावशिष्यते। सा च केवलिनः श्रुतकेवलिनश्चात्मसंचेतने तुल्यैवेति नास्ति ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेवः ॥३४॥ भूमिका-अब मान के श्रुत-उपाधि (कृत) भेद को दूर करते हैं (अर्थात यह दिखाते है कि श्रुतज्ञान भी ज्ञान है, श्रुत रूप उपाधि के कारण ज्ञान में कोई भेव नहीं होताः अन्वयार्थ--[पुद्गलद्रव्यात्मक: वचन:] पुदगल द्रव्यात्मक दिव्यध्वनि वचनों के द्वारा [जिनोपदिष्ट] जिनेन्द्र भगवान् से उपदिष्ट [सूत्र] सूत्र है (द्रव्यश्रुत है) [तज्ज्ञप्तिः हि ज्ञान] उसकी ज्ञप्ति (जानना) ज्ञान है (उस पूर्वोक्त शब्दश्रुत के आधार से जो ज्ञप्ति है-अर्थपरिनित्ति है तद शान कहा जाता है) [च] और (उस ज्ञान को) [सूत्रस्य अप्तिः] सूत्र की नप्ति (श्रुतज्ञान) [भणिता] कहा गया है। टीका--पहले तो (श्रुतज्ञान इस शब्द में) श्रुत वास्तव में सूत्र है और यह सूत्र भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ के द्वारा कहा हुआ, स्यात्कार चिन्हयुक्त, पोद्गलिक शब्दब्रह्म है। (श्रुतज्ञान इस सब्द में ज्ञान शम्ब से वाच्य) उस (सूत्र) को अप्ति सो ज्ञान है । (श्रुतज्ञान इस शम्ब में) श्रुत (सूत्र) तो उसका (ज्ञान का) कारण होने से ज्ञान रूप से उपचार ही किया जाता है (उपचार से ज्ञान कहा जाता है जैसे कि अन्न को प्राण कहा जाता है)। ऐसा होने पर "सूत्र को ज्ञप्ति सो श्रुतज्ञान है" ऐसा हरता है (सिद्ध होता है)। अब सूत्र को उपाधिपना होने से उसका आदर न किया माए तो ज्ञप्ति ही शेष रह जाती है (सत्र की शप्ति कहने पर सूत्र आश्रय या निमित्त मात्र होने से उपाधि ही है। किन्तु ज्ञप्ति स्वयं आत्मा का ही परिणमन है । इसलिये यदि सूत्र को न गिना जाय तो 'मन्ति' ही शेष रहती है) और वह (ज्ञप्ति) केवलो के और श्रुतकेवली के आत्म-अनुभव में समान ही है। इसलिये ज्ञान के श्रुत-उपाधि (कृत) भेव नहीं है। तात्पर्यवत्ति . अथ शब्दरूपं प्रश्रत व्यवहारेण ज्ञानं निश्वयेनार्थपरिच्छित्तिरूपं भावतमेव ज्ञानमिति कथयति । अथवारमभावनारतो निश्चयश्रुत केवलो भवतीति पूर्वसूत्र भणितम्, अयं तु व्यवहारश्रुत'केवलीति कथ्यते, सतं. द्रव्यधुतं । कयम्भूतं ? जिगोवविठं जिनोपदिष्टं । कः कृत्वा ? पोगलदम्बप्पगेहि बयणेहि पुद्गलद्रव्यात्म कैदिव्यध्वनिवचनैः तं जाणणा हि गाणं तेन पूर्वोवत-सदश्रुधारेण ज्ञप्तिरपरिमिछत्तिर्शानं मण्यते हि स्फुट सुत्तस्स य जाणणा भगिया पूर्वोक्तद्रव्यश्रुतस्यापि व्यवहारेणा शानव्यपदेशो भवति न सुनिश्चयेनेति । तथाहि-यथा निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावो जीवः पश्चाइयवहारेण नरनारक दिल्पोपि जीवो भण्यते । तथा निश्चयेनाखण्डकप्रतिमासरूपं समस्तवस्तुप्रकाश मानं मण्यते, पश्चाद्वघवहारेण मेघपटलावतादित्यस्यावस्थाविशेषवस्कमपटलावृताखण्ड कज्ञानरूप'जीवस्य मंतिज्ञानश्रुतंज्ञानादिव्यपदेशो भवतीति भाव यः ॥३४॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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