SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० ] [ पवयणसारो मनुष्यादिगतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहङ्कारममकारा अनेकापचरक संचारितरत्नप्रदीप मिव मेवाला, अनिचलित चेतना विलास मात्र मात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्त क्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो विश्रान्तरागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमाना निरस्त समस्त पर द्रव्यसंग तितया स्वद्रव्येर्णव केवलेन संगतत्वात्स्वसमया जायन्ते । अतः स्वसमय एवात्मनस्तत्यम् ॥६४॥ भूमिका- - अब आनुषंगिक ऐसी यह हो स्वसमय परसमय की व्यवस्था ( भेद ) निश्चित करके ( उसका ) उपसंहार करते हैं अन्वयार्थ -- [ ये जीवाः ] जो जीव [पर्यायेषु निरता: ] ( विभाव) पर्यायों में लीन हैं [ परसमयिकाः इति निर्दिष्टा: ] उन्हें पर समय कहा गया है [ आत्मस्वभावे स्थिताः ] जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं [ते] वे [ स्वकसमयाः ज्ञातव्याः ] स्व-समय जानने योग्य है । टीका - जो (१) जीव पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्य पर्याय का, जो सकल अविद्याओं की ( मिथ्याज्ञान की ) एक जड़ है, आश्रय करते हैं ( २ ) यथोक्त आत्म स्वभाव की संभावना ( अनुभव ) करने में नपुंसक है, (३) उस (पर्याय) में ही आसक्ति को प्राप्त हैं, वे (१) जिनकी निरगंल एकान्तदृष्टि उछलती है, (२) 'यह मैं मनुष्य ही है, मेरा हो यह मनुष्य शरीर हैं' इस प्रकार अहंकार-ममकार से उगाये हुए, (३) अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्म व्यवहार से च्युत होकर, (४) जिसमें समस्त क्रिया-कलाप को छाती से लगाया जाता है ऐसे मनुष्य व्यवहार का आश्रय करके, (५) राग-द्वेषी होते हुए, (६) परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगति के कारण वास्तव में परसमय होते हैं ( अर्थात् परसमयरूप परिणमित होते हैं ।) जो असंकीर्ण पर से भिन्न द्रव्य गुण-पर्यायों से सुस्थित भगवान् आत्मा के स्वभाव का, ओ सकल विद्याओं का एक मूल है, आश्रय करके, यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना में ( अनुभव में समर्थ होने से पर्यायमात्र को आसक्ति को छोड़ करके, आत्मा के स्वभाव में ही स्थिति करते हैं (लोन होते हैं), वे (१) जिन्होंने सहज विकसित अनेकान्तदृष्टि से समस्त एकान्तदृष्टि के परिग्रह के आग्रह प्रक्षीण ( नष्ट) कर दिये हैं, (२) मनुष्यादि गतियों में और उन गतियों के शरीरों में अहंकार-ममकार न करके, अनेक कक्षों ( कमरों) में संचारित रत्नदीपक को भांति एकरूप हो आत्मा को उपलब्ध ( अनुभव ) करते हुये, (३) अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्म व्यवहार को अंगीकार करके, ( ४ ) जिसमें समस्त
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy