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________________ पवमणसारो ] [ २२१ क्रिया-कलाप से भेंट की जाती है ऐसे मनुष्य व्यवहार का आश्रय नहीं करते हुए, (५) रागद्वेष की प्रगटता रुक जाने से, परम उदासीनता का आलंबन लेते हुये, (६) समस्त परद्रव्यों की संगति दूर कर देने से, मात्र स्वद्रव्य के साथ ही संगति होने से, वास्तव में स्वसमय होते हैं, अर्थात् स्वसमयरूप परिणमित होते हैं । इसलिये स्वसमय ही आत्मा का तत्व है । परसमय के कथन में जो बात जिस नम्बर पर कही गई है, स्वसमय के कथन में उसके सापेक्ष नम्बर पर ठीक उसके विपरीत बात दिखलाई गई है के लिये भाषा टीका में नम्बर डाले गये हैं ।। ६४ ।। । इसी बात का ध्यान दिलाने तात्पर्य वृत्ति अथ प्रसंगायतां परसमयस्त्रसमयव्यवस्थां कथयति पज्जयेसु गिरदा जीवा ये पर्यायेषु निरताः जीवाः परसमथिंग ति णिद्दिट्ठा ते परसमया इति निर्दिष्टाः कथिताः । तथाहि मनुष्यादिपर्यायरूपोऽहमित्यहङ्कारो भण्यते, मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधात्पापञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं न ममेति ममकारी भण्यते ताभ्या परिमार रहित परम चैतन्यचमत्कारपरिणतेरच्युता ये ते कर्मोदयजनितपरपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो मध्यन्ते आवसहावम्मि विदा ये पुनरात्मस्वरूपे स्थितास्ते सगसमया मुणेयश्वा स्वसमया मन्तव्या ज्ञातव्या इति । तद्यथा— अनेकापवरकसंचारित करत्न प्रदीप इवानेकशरीरेष्वप्येको मिति "वृढ़संस्कारेण निजशुद्धात्मनि स्थिता ये ते कर्मोदयजनितपर्यायपरिणतिरहितत्वात्स्वलमया न्यर्थः ॥४६॥ arafter — आगे यहाँ प्रसंग पाकर परसमय और स्वसमय की व्यवस्था खाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जे जीवा ) जो जीव ( पज्जयेसु णिरबा) पर्यायों में लवसीन हैं। अर्थात् जिनको पर्याय के अतिरिक्त ब्रध्य सामान्य का बोध नहीं है (परसमयिग ति नारकी ) परसमयरूप कहे गए हैं। विस्तार यह है कि मैं मनुष्य, पशु, देव, या पर्याय रूप ही हूँ, इस भाव को अहंकार कहते हैं। यह मनुष्य आदि शरीर तथा शरीर के आधार से उत्पन्न पंचेन्द्रियों के विषय रूप सुख मेरे स्वभाव हैं इस भाव को कार कहते हैं। जो अज्ञानी ममकार और अहंकार से रहित परम चैतन्य चमत्कार की परिणति से अनभिज्ञ इन अहंकार मसकार भावों से परिणमन करते हैं, वे जीव कर्मों के से उत्पन्न परपर्याय में सर्वथा लोन होने के कारण से परसमय कहे जाते हैं। ( आबबम्म दिदा) जो ज्ञानी अपने आत्मा के स्वभाव में ठहरे हुए हैं ( ते समसमया मुणेक) से स्वसमग्ररूप जानने चाहिये। विस्तार यह है कि जैसे एक रत्न - दीपक अनेक विकार के घरों में घुमाए जाने पर भी एक रत्न रूप ही है, इसी तरह अनेक शरीरों में : $ NA
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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