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________________ ३२ ] [ पश्यणसारो निस्तरंग चैतन्य प्रतपन होने से जो तपयुक्त है, (४) सकल मोहनीय के विपाक से भेद की भावना की उत्कृष्टता से (समस्त मोहनीय कर्म के उदय विभिन्नत्व को उत्कृष्ट भावना से) निविकार आत्मस्वरूप को प्रगट किया होने से जो वीतरागी है, और (५) परम कला के अवलोकन के कारण (आत्मा में लीनता के कारण) साता वेदनीय तथा असातावेदनीय के विपाक से उत्पन्न होने वाले जो सुख दुःख-उन-सुख-दुख-जनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से (परम सुख रस में लोन निर्विकार स्वसंवेदन रूप परम कला के अनुभव के कारण इष्ट अनिष्ट संयोगों में हर्ष शोक आदि विषम परिणामों का अनुभव न होने से) जो समसुखदुःख है, ऐसे पांच विशेषण वाला श्रमण शुद्धोपयोगी कहा जाता है। भावार्थ--यह शुद्धोपयोग मुख्यतया बारहवें गुणस्थान में परिणत मुनि के होता है परन्तु गौणतया सातवें से बारहवें गुणस्थान तक के मुनि के होता है। तात्पर्य पनि ___ अथ येन शुद्धोपयोगेन पूर्वोक्तसुखं भवति तत्परिणतपुरुषलक्षणं प्रकाशयति-सुविदिवपपत्यसुत्तो सुष्ठु संशयादिरहितत्वेन विदिता ज्ञाता रोचिताश्च निजशुद्धात्मादिपवास्तित्प्रतिपादकसूत्राणि च येन स सुविदितपदार्थसूत्रो भण्यते । संजमतवसंजुदो बाह्ये द्रव्येन्द्रियव्यावर्तनेन षड्जीवरक्षणेन चाभ्यन्तरे निजशुखात्मसंवित्तिबलेन स्वरूपे संयमनात् संयमयुक्तो, बाह्याभ्यन्तरतपोबलेन कामक्रोधादिशत्रुभिरखपिजतप्रतापस्य स्वशुद्धात्मनि प्रतपनाद्विजयनात्तप:संयुक्तः विगदरागो वीतरागशुद्धात्मभावनाबलेन समस्तरागादिदोषरहितत्वाद्विगत रागः। समसुहबुवखो निर्विकारनिर्विकल्पसमाधेरुद्गता समुत्पन्ना तथैव परमानन्दसुखरसे लीना तल्लया निर्विकारस्वरांदित्तिरूपा या तु परमकला तदवष्टम्भेनेष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविषादरहितत्वात्समसुखदुःखः (समणो) एवं गुणविशिष्टः श्रमणः परममुनिः भणिो सुद्धोषयोगोत्ति शुद्धोपयोगो भणित इत्यभिप्रायःः॥१४॥ एवं शुद्धोपयोगफलभूतानन्तसुखस्य शुद्धोपयोगपरिणत पुरुषस्य च कथनरूपेण पञ्चमस्थले गाथाद्ववं गतम् ।। इति चतुर्दशगाथाभिः स्थलपञ्चकेन पीठिकाभिधान: प्रथमोन्तराधिकारः समाप्तः। उत्थानिका-आगे जिस शुद्धोपयोग के द्वारा पहले कहा हुआ आनन्द प्रगट होता है उस शुद्धोपयोग में परिणमन करने वाले पुरुष का लक्षण प्रगट करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ— (सुविदिवपवत्थसुत्तो) भले प्रकार पदार्थ और सूत्रों को मानने वाला, अर्थात संशय विमोह विभ्रम रहित होकर जिसने अपने शुद्धात्मा आदि पदार्थों को तथाउनके बताने वाले सूत्रों को जाना है और उनकी रुचि प्राप्त की है, (संजमतवसंजुदो) संयम और तप-संयुक्त है अर्थात् जो बाह्य में द्रध्येन्द्रियों से उपयोग हटाते हुए और पृथ्वी भावि छह कायों की रक्षा करते हुए तथा अंतरंग में अपने शुद्ध आत्मा के
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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