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________________ पघयणसारो ] अनुभव के बल से अपने स्वरूप में संयम रुप ठहरे हुए हैं तथा बाह्य व अंतरंग बारह प्रकार तप के बल मे काम को आनि शत्रुओं से जिसका प्रताप खंडित नहीं होता है और जो अपने शुद्ध आत्मा में तप रहे हैं, जो (विगदरागो) वीतराग हैं अर्थात् शुद्ध आत्मा की भावना के बल से सर्व रागादि दोषों से रहित हैं (समसुहदुक्खो) सुख-दुःख में समान हैं अर्थात् विकार-रहित और विकल्प-रहित समाधि से उत्पन्न तथा परमानन्द सुख रस में लवलीन ऐसी निविकार स्वसंवेदन रूप जो परम चतुराई उसमें स्थिरीभूत होकर इष्ट-अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में हर्ष-विषाद को त्याग देने से समता भाव के धारी हैं ऐसे गुणों को रखने वाला (समणो) परममुनि (सुद्धोवओगो) शुद्धोपयोग स्वरूप (भणिओ) कहा गया है (ति) ऐसा अभिप्राय है। इस तरह शुद्धोपयोग का फल जो अनंतसुख है, उसके पाने योग्य शुद्धोपयोग में परिणमन करने वाले पुरुष का कथन करते हुए पांचवें स्थल में दो गाथाएँ पूर्ण हुई तथा इसी प्रकार चौदह गाथाओं के द्वारा पांच स्थलों से पीठिका नाम का प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति तदनन्तरं सामान्येन सर्वसिद्धिर्ज्ञानविचारः संक्षेपेण शुद्धोपयोगफलं चेति कथनरूपेग गाथासप्तकम् । तत्र स्थलचतुष्टयं भवति, तस्मिन् प्रथमस्थले सर्वज्ञस्वरूपकथनार्थ प्रथमगाथा, स्वयम्भूकथनार्थ द्वितीया चेति "उवओगविसुद्धो" इत्यादि गाथाद्वयम् । अथ तस्यैव भगवत उत्पादव्ययध्रौव्यस्थापनार्थ प्रथमगाथा, पुनरपि तस्यैव दृढीकरणाथ द्वितीया चेति 'भंगविहीणों' इत्यादि गाथाद्वयम् । अथ सर्वज्ञश्रद्धानेनानन्तसुखं भवतीति दर्शनार्थ तं सखट्ठवरिठे इत्यादि सूत्र मेकम् । अपातीन्द्रियज्ञानसौख्यपरिणमनकथन मुख्यत्वेन प्रथममाथा, केवलिभुक्तिनिराकरण मुख्यत्वेन द्वितीया चेति पक्खीणघाइकम्मो इति प्रभृति गाथाद्वयम् । एवं द्वितीयान्तराधिकारे स्थल चतुष्टयेन समुदायपातनिका। आगे सामान्य से सर्वज्ञ की सिद्धि व ज्ञान का विचार तथा संक्षेप से शद्धोपयोग का फल कहते हुए गाथाएं सात हैं। इनमें चार स्थल हैं। पहले स्थल में सर्वज्ञ का स्वरूप कहते हुए पहली गाया है, स्वयंभू का स्वरूप कहते हुए दूसरी, इस तरह "उवओग विसुद्धो" को आदि लेकर दो गाथाएं हैं। फिर उस ही सर्वज्ञ भगवान के भीतर उत्पाद-व्यय-नौव्यपन स्थापित करने के लिए प्रथम गाथा है। फिर भी इस ही बात को दढ़ करने के लिये दूसरी गाथा है। इस तरह "भंग विहीणो" को आदि लेकर दो गाथाएं हैं। आगे सर्वज्ञ के श्रद्धान करने से अनन्त सुख होता है, इसके दिखाने के लिये "तं सचठ्ठयरिटें" इत्यादि
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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