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________________ के मुखकमल से निकली हुई उन १८० गाथाओं के अर्थ को भले प्रकार श्रवण कर प्रवचन के वात्सल्य से प्रेरित होकर श्री यतिवृषभाचार्य ने उन पर छह हजार श्लोक प्रमाण चूणीसूत्र की रचना की। दिगम्बर परम्परा में जो आचार्य श्रुतप्रतिष्ठापक के रूप में हुए उनमें श्री गुणधर आचार्य और श्री धरसेन आचार्य प्रधान हैं, क्योंकि आचार्य धरसेन को द्वितीय पूर्वगत पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था और श्री गुणधर आचार्य को पूर्वगत पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था । दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यतानुसार षटखण्डागम और कषायप्राभूत ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सोधा सम्बन्ध श्री महावीरस्वामी की द्वादशांगवाणी से है। ये ग्रन्थराज दक्षिण में सुरक्षित थे और जो दक्षिण की यात्रा को जाते थे उनको इन ग्रन्थराजों के मात्र दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता था। श्री पं० टोडरमल जी जैसे विद्वान् को इनके दर्शन तक भी प्राप्त न हो सके, किन्तु हर्ष की बात है कि इन मन्थराज का प्रकाशन हिन्दी अनुवाद सहित श्रावकाश्रम सोलापुर तथा वीरशासन संघ कलकत्ता से हो चुका है। श्री वीरसेन महान् आचार्य हुए हैं, जिन्होंने करणानुयोग को भी तर्क की कसौटी पर लगाया है। उन्होंने बखण्डागद में पांच खण्की पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण और कषायप्राभूत की चार विभक्तियों पर २० हजार श्लोक प्रमाण टीका रची। शेष कषायप्राभत पर उनके शिष्य श्री जयसेन आचार्य ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसको पूर्ण किया। षट्खण्डागम की टीका का नाम धवल है जो हिन्दी अनुवाद सहित १६ भागों में प्रकाशित हो चुकी है। कषायप्राभृत की टीका का नाम जयधवल है जिसके सम्पूर्ण सोलह भाग प्रकाशित हो चुके हैं 1 षट्खण्डागम का छटवां खण्ड महाबंध भी सात भागों में ज्ञानपीठ नामक संस्था से प्रकाशित हो चुका है। यद्यपि इन ग्रन्थों का प्रकाशन सन् १६३६ से प्रारम्भ हो गया था, परन्तु बहुत कम व्यक्ति सूक्ष्मदृष्टि से इनका अध्ययन कर सके । श्री शांतिसागर आचार्य की परम्परा में आचार्य श्री शिवसागर, आचार्य धर्मसागर के संघ के आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी आदि मुनि तथा आर्यिका विशुद्धमति जी आदि आर्यिकाओं ने इन ग्रन्थराज का अध्ययन बड़ी लगन और निष्ठा से किया और इन्हीं ने बंध-स्वामित्व विचय तीसरे खण्ड में अनेकों संशोधन प्रस्तुत किये हैं, जिनको अनुवादक विद्वानों ने भी सहर्ष स्वीकार किया है। यहां यह शंका हो सकती है कि सर्वत्र इन महान् ग्रन्थों की स्वाध्याय क्यों नहीं हुई ? तो इसके समाधान में यह कहना अनुचित होगा कि इन ग्रन्थराज का विषय बहुत गहन है, क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध श्री महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से है। यदि इन ग्रन्थराजों का अध्ययन सर्वत्र हो जाता तो नवीन सम्प्रदायों का कोई स्थान न रहता, क्योंकि इनमें सात तत्त्वों का इतना सूक्ष्म व विशद विवेचन है कि अन्यथा कल्पना हो नहीं सकती। ___श्री गुणधर, श्री धरसेन, श्री पुष्पदन्त, श्री भुतबलि के पश्चात् श्री कुन्दकुन्द आचार्य हुए हैं, उस समय अंग या अंग व पूर्व के एक देश का ज्ञान लुप्त हो चुका था। श्री कुन्दकुन्द आचार्य का वास्तविक नाम श्री पद्मनन्दि था। किन्तु जन्मभूमि के कारण वे कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हए । उनके ससय के विषय में विद्वानों में मतभेद है। अतः उनके समय का यथार्थ निर्णय नहीं किया जा सकता, फिर भी षटम्बण्डागम की टीका श्री कुन्दकुन्द आचार्य द्वारा रची गई इससे यह प्रतीत होता है कि उनका काल ईसवी को दूसरी शताब्दी का पश्चिम भाग है ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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