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________________ प्रस्तावना चतुर्थ काल में जब ३ वर्ष ८ माह १५ दिन शेष रह गये थे, तब अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान् कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए, उनके पश्चात् ६२ वर्ष में श्री गौतमस्वामी, श्री सुधर्माचार्य और श्री जम्बूस्वामी ये तीन अनुबद्धकेवली हुए । तत्पश्चात् १०० वर्ष में श्री विष्णु, श्री नदिमित्र श्री अपराजित, श्री गोवर्धन, श्री भद्रबाहु ये पांच अनुवद्ध श्रुतकेवली हुए । अनन्तर १५१ वर्ष में श्री विशाखाचार्य श्री प्रोष्ठिल, श्री क्षत्रिय, श्री जयसेन, श्री नागसेन, श्री सिद्धार्थ, श्री धृतिषेण, श्री विजय, श्री बुद्धिलिंग, श्रीदेव, श्री धर्मसेन ये ११ आचार्य दस पूर्वधारी हुए। इसके पश्चात् १२३ वर्ष में श्री नक्षत्र, श्री जयपाल, श्री पांडव, श्री ध्रुवसेन, श्री कंस ये पाच आचार्य ग्यारह अंगधारी हुए। इसके पश्चात् ६६ वर्ष में श्री सुभद्र, श्री यशोभद्र, श्री भद्रवाह, श्री लोहाचार्य ये चार आचार्य दस, नत्र अथवा आठ अंगधारी हुए। इसके पश्चात् ११८ वर्ष में श्री जो एक अंगधारी अलि, श्री माघनन्दि, श्री धरसेन, श्री पुष्पदन्त, श्री भूतबलि ये पांच आचार्य हुए थे अथवा अंगों और पूर्वी के एक देश ज्ञाता थे। इस प्रकार श्री महावीर भगवान् के पश्चात् भी ६८३ वर्ष तक अंग का ज्ञान रहा । ! श्री धरसेन आचार्य के शिष्य श्री पुष्पदन्त और भूतबलि ने 'षट्खण्डागम' की रचना कर लिपिवद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन इस ग्रन्थराज की पूजा हुई, इसलिये ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी आज भी श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध है । इस षट्खण्डागम में श्री गौतम गणधर रचित सूत्रों का भी संकलन है 1 (१) जीवट्ठाण, (२) खुद्दाबन्ध, (३) बंधस्वामित्वविचय, (४) वेदना, (५) वर्गणा, (६) महाबंध ये षट्खण्डागम के छह खण्ड हैं। इस षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्ड पर श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने बारह हजार श्लोक प्रमाण परिकर्म टीका रची थी। ज्ञान प्रवाद पूर्व को दसवीं वस्तु के तीसरे कषाय प्राभृत का ज्ञान श्री गुणधर आचार्य को था, जिन्होंने तीर्थ- विच्छेद के भय से कसायपाहुड को १८० गाथाओं द्वारा रचना की है। जिसमें कपायों को विविध दशाओं का वर्णन करके उनके दूर करने का मार्ग बतलाया है और यह भी प्रगट किया है कि किस कषाय के दूर होने से कौनसा आत्मिकगुण प्रगट होता है । कसा पाहुड की ये गाथाएं आचार्य परम्परा से आचार्यों को प्राप्त हुई । पुनः उन दोनों ही आचार्यों के आती हुई श्री आर्यमक्षु और श्री नागहस्ती पादमूल में बैठकर उनके द्वारा गुणधराचार्य १ धवल पु० १ प्रस्तावना पृ० २२-९३ ॥ २ - एवं द्विविधो द्रव्यभाव पुस्तकगता । गुरूपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तकुन्दकुन्दपुरे ॥ १६० ।। श्री पदमनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादस सहस्र परिमाणः । ग्रन्थ परिक्रमं कर्त्रा षट्खण्डाय विखण्डस्य ||६१॥ (इन्द्रनन्दितवतारः )
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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