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________________ ४८६ ] पवयणसारा उत्थानिका—आगे जिनदीक्षा को लेने वाला भव्य जीव जैनाचार्य की शरण ग्रहण करता है, ऐसा कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-समणं) समताभाव में लीन, (गुणड्द) गुणों से परिपूर्ण, (कुलस्ववयोविसिट्ठम्) कुल, रूप तथा अवस्था से उत्कृष्ट, (समणेहिं इठ्ठतरं) महामुनियों से अत्यन्त मान्य (तं गणि) ऐसे उस आचार्य के पास प्राप्त होकर (पणदो) उनको नमस्कार करता हुआ (च अपि) और (मं पडिच्छ) 'मेरे को अंगीकार कीजिये' (इदि) ऐसी प्रार्थना करता हुआ (अणुगहिदो) आचार्य द्वारा अंगीकार किया जाता है । जिनदोक्षा का अर्थो जिस आचार्य के पास जाकर दीक्षा की प्रार्थना करता है उसका स्वरूप बताते हैं । वह निन्दा व प्रशंसादि में समताभाव को रखकर पूर्व सूत्र में कहे गये निश्चय और व्यवहार पञ्च-प्रकार आचार के पालने में प्रवीण होते हैं, चौरासी लाख गुण और अठारह हजार शील के सहकारी कारणरूप जो अपने शुद्धात्मा का अनुभवरूप उत्तमगुण उससे परिपूर्ण होते हैं। लोगों को घृणा से रहित जिनदीक्षा के योग्य कुल वाले होते हैं। अन्तरंग शुद्धात्मा का अनुभव रूप निग्रंथ निर्विकार रूप वाले होते हैं। शुद्धात्मानुभव को विनाश करने वाले युद्धपने, बालपने व यौवनपने के उद्धतपने से पैदा होने वाली बुद्धि की चंचलता से रहित होने से वय वाले होते हैं। इन कुल, रूप तथा यय से श्रेष्ठ तथा अपने परमात्मा तत्व की भावना सहित समचित्तधारी अन्य आचार्यों के द्वारा सम्मत होने हैं। ऐसे गुणों से परिपूर्ण परमभाव के साधक दीक्षा के दाता आचार्य का आश्रय करके उनको नमस्कार करता हुआ यह प्रार्थना करता है-- हे भगवन् ! अनन्तज्ञान आदि अरहत के गुणों को सम्पदा को पैदा करने वाली व जिसका लाभ अनादिकाल में भी अत्यन्त दुर्लभ रहा है ऐसी भाव सहित जिनदीक्षा का प्रसाद देकर मेरे को अवश्य स्वीकार कीजिये । तब वह उन आचार्य के द्वारा इस तरह स्वीकार किया जाता है "हे भव्य ! इस असार संसार में दुर्लभ रत्नत्रय के लाभ को प्राप्त करके अपने शुद्धात्मा की भावना रूप निश्चय चार प्रकार आराधना के द्वारा तू अपना जन्म सफल कर ।।२०३।। अथातोऽपि कोदृशो भवतीत्युपदिशति णाहं होमि परेसिं ण मे परे गस्थि मज्झमिह किंचि । इदि णिच्छिदो जिविंदो जादो जधजावरूवधरो ॥२०४॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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