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________________ २६२ ] [ पवयणसारो है किन्तु वह सत्ता से भिन्न रहता है, पीछे सत्ता के समवाय (सम्बन्ध) से वह सत् होता है । आचार्य इस पर प्रति-शंका करते हैं कि सत्ता के समवाय के पूर्व द्रव्य सत् या असत् है ? यदि सत् है तो सत्ता का समवाय वृथा है क्योंकि द्रव्य पहले से ही अपने अस्तित्व में है। यदि सत्ता के समवाय से पहले द्रव्य नहीं था तब आकाश पुष्प की तरह अविद्यमान उस द्रव्य के साथ किस तरह सत्ता का समवाय होगा? यदि कहो कि सत्ता का समवाय हो जावेगा, तब फिर आकाश पुरुष के साथ भी सत्ता का समवाय हो जावेगा, परन्तु ऐसा नहीं है । इसलिए जैसे अभेदनय से शुद्ध स्वरूप को सत्ता रूप ही परमात्म द्रव्य के साथ शुद्ध चेतना स्वरूप सत्ता का अभेद व्याख्यान किया गया तैसे ही सर्व चेतन द्रव्यों का अपनीअपनी सत्ता से अभेद व्याख्यान करना चाहिये । ऐसे ही अचेतन द्रव्यों का अपनी सत्ता से अभेद है, ऐसा समझना चाहिये ॥१०५॥ अय पृथक्त्वान्यत्वलक्षणमुन्मुद्रयति पविभत्तपदेस धत्तविदिशाल हि लीरा । अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमगं ॥१०६॥ प्रविभक्तप्रदेशस्त्रं पृथक्त्वमिति शासनं हि वीरस्य । अन्यत्वमतद्भावो न तद्भवत् भवति कथमेकम् ॥१०६।। प्रविभक्तप्रवेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्न संभाव्यते, गुणगुणिनोः प्रविभक्तप्रदेशत्वाभावात् शुक्लोत्तरीयवत् । तथाहि-यथा य एव शुक्लस्य गुणस्य प्रदेशास्त एवोत्तरीयस्य गुणिन इति तयोनं प्रवेशविभागः, तथा य एव सत्ताया गुणस्य प्रदेशास्त एव द्रव्यस्य गुणिन इति तयोनं प्रदेश विभागः । एवमपि तयोरन्यत्वमस्ति तल्लक्षपसद्भावात् । असद्धायो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ताद्रव्ययोविधत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव । तथाहि-यथा यः किलैकचक्षुरिन्द्रिय-विषयमापद्यमानः समस्तरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेत रेन्द्रियग्रामगोचरमतिकान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्धावस्याभावः । तथा या किलाश्रित्य वतिनी निर्गुणैकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा च सत्ता भवति, न खलु तदनाश्रित्य यति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिभत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति यत्तु फिलानाप्रित्य वति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति, न खलु १. पृधत्त (ज० वृ०) । २. कहक्क (ज० वु०) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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