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पवयणसारो ]
[ ५७५ तथा संयमीपना एक काल में होते हए जिसके शरीरावि पर-द्रव्यों में ममता है उसके पूर्व-सूत्र कथित निर्विकल्पसमाधि रूप निश्चयरत्नत्रयमय स्वसंवेदन का लाम नहीं है। २३६॥ अथ द्रव्यभावसंयमस्वरूपं कथयति
चायो य अणारंभो विसयधिरागो खओ कसायाणं ।
सो संजमोत्ति 'गि एम ए पिरोनेन !:३१॥ चागो य निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः अणारंभो निःक्रियनिजशुद्धात्म द्रव्ये स्थित्वा मनोवचनकायव्यापारनिवृत्तिरनारम्भ: विसविरागो निविषयस्वात्मभावनोस्थसुखे तृप्ति कृत्वा पञ्चेन्द्रियसुखाभिलापत्यागो विषयविरागः। खओ कसायाणं निकषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्रोधादिकषायत्यागः कषायक्षयः । सो संजमोत्ति भणिदो स एवं गुणविशिष्टः संयम इति भणितः । पश्वज्जाए विसेसेण सामान्येनापि तावदिदं संयमलक्षणं प्रव्रज्यायां तपश्चरणावस्थायां विशेषणेति । अत्राभ्यन्तरशुद्धा संवित्तिर्भावसंयमो बहिर ननिवृत्तिश्च द्रव्यसंयम इति ॥२३६।।
उत्थानिका-आगे द्रव्य तथा भाव संयम का स्वरूप बताते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(चागो य) त्याग और (अणारंभो) आरम्भ रहितपना (विसविरागो) विषयो से वैराग्य (कसायाणं खओ) कषायों का क्षय (सो संजमोत्ति भणिदो) यह संयम है, ऐसा कहा गया है । (पम्वज्जाए) तप के समय (विसेसेण) यह संयम विशेषता से होता है। निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके और बाहरी भीतरी २४ प्रकार के परिग्रह को निधत्ति सो त्याग है। नि:क्रिय निज शुद्ध-आत्म द्रव्य में ठहरकर मन वचन काय के व्यापारों से छूट जाना सो अनारम्भ है। इन्द्रिय विषय रहित अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख में तृप्त होकर पंचेन्द्रियों के सुखों की इच्छा का त्याग सो विषयविराग है । निःकषाय निज शुद्धात्मा को भावना के बल से क्रोधादि कषायों का त्याग-सो कषाय क्षय है । इन गुणों से संयुक्तपना संयम है, ऐसा कहा गया है। यह सामान्य संयम का लक्षण है। तपश्चरण की अवस्था में विशेष संयम होता है। यहाँ अभ्यंतर परिणामों की शुद्धि को भावसंयम तथा बाह्य त्याग को द्रव्यसंयम कहते हैं । अथागमज्ञानतस्वार्थश्रद्धानसंयत्तत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यं साधयति---
पंचसमिदो तिग तो पंचेंदियसंवुडो' "जिदकसाओ । दसणणाणसमग्गो समणो सो सजदो भणिदो ॥२४०॥
पञ्चसमितस्त्रिगुप्तः पंचेन्द्रियसंवृतो जितकषायः ।
दर्शनज्ञानसमग्रः श्रमणः स संयतो भणितः 1।२४०।। १. पंचदियसंउडो (ज० व०), २. जियकसाओ (ज०७०) ।