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________________ पवयणसारो ] [ ७७ मूल गाथा में केवल श्रुतकेबली की बात है और टीकाकार केवलज्ञानी तथा श्रुतकेवली दोनों की बात कर रहे । ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यह है कि गाथा २१ से ५२ तक ज्ञान प्रज्ञापन (केवलज्ञान या केवलज्ञान स्वरूपी आत्मा) के कथन करने की प्रतिज्ञा है | श्रुतकेबली को गाया क्यों आई है ? इसमें से टीकाकार ने यह भाव निकाला है कि सूत्रकार दोनों का अविशेष दिखलाना चाहते हैं ॥३३॥ तात्पर्यवृति अथ यथा निरावरण सकलव्य तिलक्षणेन केवलज्ञानेनात्मपरिज्ञानं भवति तथा सावरणं कदेशव्यक्तिलक्षणेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन स्वसंवेदनज्ञातरूपभावश्रुतं नाप्यात्मपरिज्ञान भवतोति निश्च नोति । अथवा द्वितीयपातनिका यथा केवलज्ञानं प्रमाणं भवति तथा केवलज्ञानप्रणीतपदार्थ प्रकाशकं श्रुतज्ञानमपि परोक्षप्रमाणं भवतीति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति, जो यः कर्ता हि स्फुटं सुदेण निर्विकारस्वसंवित्तिरूपभावश्रुतपरिणामेन विजानयि विजानाति विशेषेण जानाति विषयसुखानन्द विलक्षण निजशुद्धात्मभावनोत्य रमानन्दै कल अणसुख रसास्वादेनानुभवति । कम् ? अप्पाणं निजात्मद्रव्यं । कथम्भूतं ? जाणगं ज्ञायकं केवलज्ञानस्वरूपं । केन कृस्वा ? सहावेण समस्त विभावरहितस्वभावेन तं सुयकेवल तं महायोगीन्द्रं श्रुतकेवलिनं भणति कथयन्ति । के कर्तारः ? इसिणो ऋषयः । किं विशिष्टाः ? लौयष्पदीवयरा लोकप्रदीपकरा लोकप्रकाशका इति । अतो विस्तरः युगपत्परिणत समस्त चैतन्यशालिना केवलज्ञानेन अनाद्यनन्तनिः कारणान्यद्रव्यासाधारणस्वसंवेद्यमान परम चैतन्य सामान्यलक्षणस्य परद्रव्यरहितत्वेन केवलस्यात्मन आत्मनि स्वानुभवनाद्यथा भगवान् केवलि भवति तथायं गणधर देवादिनिश्चय रत्नत्रयाराधकजनोपि पूर्वोक्तलक्षणस्यात्मनो मावश्रुतज्ञानेन स्वसंवेदनाभिश्चयश्रुतकेवली भवतीति । किञ्च यथा कोपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति, रात्री किमपि प्रदीपेनेति । तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन दिवसस्थानीयमोक्षपर्याये भगवानात्मानं पश्यति । संसारी विवेकिजनः पुनर्निशास्थानीयसंसारपर्याय प्रदीप स्थानीयेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिना निजात्मानं पश्यतीति । अयमत्राभिप्राय : – आत्मा परोक्षः, कथं पानं क्रियते इति सन्देहं कृत्वा परमात्मभावना न त्याज्येति । ३३ ॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि जैसे सर्व आवरण रहित सर्व को प्रगट करने वाले लक्षण को धारने वाले केवलज्ञान से आत्मा का ज्ञान होता है तैसे आवरण सहित एक देश प्रकट करने वाले लक्षण को धरने वाले तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति का बीज रूप स्वसंवेदन ज्ञानमयी भाव श्रुतज्ञान से भी आत्मा का ज्ञान होता है अर्थात् जैसे केवलज्ञान से आत्मा का जानपना होता है वैसा श्रुतज्ञान से भी आत्मा का ज्ञान होता है । आत्मज्ञान के लिये दोनों ज्ञान बराबर हैं । अथवा दूसरी पातनिका यह है कि जैसे केवलज्ञान प्रमाण रूप हैं जैसे ही केवलज्ञान द्वारा दिखलाए हुए पदार्थों को प्रकाश करने वाला श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है । इस तरह दो पातनिकाओं को मन में रखकर आगे का सूत्र कहते हैं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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