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________________ पत्रयणसारो ] [ १३७ जानने के कारण से और ( ५ ) अवग्रहादि सहित होता हुआ क्रम-पूर्वक पदार्थ ग्रहण के खेद के कारण से ( इन ५ कारणों से) परोक्षज्ञान अत्यन्त आकुल ( दुःखमयी) होता है । इसलिये वह परमार्थ से सुख रूप नहीं है । अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान की सुखरूपता - ( १ ) अनाविज्ञान सामान्य रूप स्वभाव के ऊपर महा विकास से व्याप्त होकर स्वतः ही व्यवस्थित रहने से स्वयं उत्पन्न हुआ आत्माधीनता से, ( २ ) परम प्रत्यक्षज्ञानोपयोग रूप होकर समस्त आत्म- प्रदेशों को व्याप्त करके व्यवस्थित पने के कारण से, समन्त हुआ यानि सम्पूर्ण द्वार के खुल जाने के कारण से, ( ३ ) समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारों को सर्वथा पो जाता हुआ, परम विविधता को व्याप्त होकर व्यवस्थित रहने से, अनन्त पदार्थों में विस्तृत होता सर्व पदार्थों को जानने की इच्छा का अभाव होने से, ( ४ ) सकल शक्ति को रोकने वाले कर्म सामान्य के ( सम्पूर्ण ज्ञानावरण के ) निकल जाने के कारण से, अत्यन्त स्पष्ट प्रकाश के द्वारा प्रकाशमान स्वभाव में व्याप्त होकर व्यवस्थित रहने से, विमल होता हुआ सम्यक्तया जानने के कारण से तथा (५) जिनने त्रिकाल का अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है ऐसे लोकालोक व्याप्त होकर व्यवस्थित रहने से, अवग्रह आदि से रहित होता हुआ क्रमपूर्वक किये गये परार्थ ग्रहण के खेद का अभाव होने से ( इन पाँच कारणों से ) यह प्रत्यक्षज्ञान अनाकुल (आकुलता रहित ) सुखरूप है । इसीलिये वह (प्रत्यक्षज्ञान ) वास्तव में पारमार्थिक सुखरूप है ॥ ५६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथाभेदनयेन पञ्चविशेषणविशिष्टं केवलज्ञानमेव सुखमिति प्रतिपादयति जावं जातं उत्पन्नं । किं कर्तृ ? गाणं केवलज्ञानं । कथं जातं ? सयं स्वयमेव । पुनरपि किविशष्ट ? समस्तं परिपूर्ण पुनरपि किरूपं ? अनंतत्थवित्थवं अनन्तार्थ विस्तीर्णम् । पुनः कीदृशं ? विमलं संशयादिमल रहितं । पुनरपि । कीदृक् ? रहियं तु ओग्गहाविहिं अवग्रहादिरहितं चेति एवं पञ्चविशेषणविशिष्टं यत्केवलज्ञानं सुहंत्ति एगतियं भणियं तत्सुखं भणितं । कथंभूतं ? ऐकान्तिकं नियमेनेति । तथाहि परनिरपेक्षत्वेन चिदानन्दैकस्वभावं निजशुद्धात्मानमुपादानकारणं कृत्वा समुत्पद्यमानत्वात्स्वयं जायमानं सत्सर्वं शुद्धात्मप्रदेशाधारत्वेनोत्पन्नत्वात्समस्तं सर्वज्ञानाविभागपरिच्छेदपरिपूर्ण सत् समस्तावरणक्षयेनोत्पन्नत्वात्समस्तज्ञेयपदार्थ ग्रहाकत्वेन विस्तीर्ण सत् संशयविमोहविभ्रमरहितत्वेन सूक्ष्मादिपदार्थ परिच्छित्तिविषयेऽत्यन्त विशदत्वाद्विमलं सत् क्रमकरणव्यवधानजनितखेदाभावादवग्रहादिरहितं च सत्, यदेवं पञ्चविशेषणविशिष्टं क्षायिकज्ञानं तदनाकुलत्वलक्षणपरमानन्दैकरूपप/रमादिकसुखात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि निश्चयेनाभिन्नत्वात्पारमार्थिकसुख भण्यते । इत्यभि प्रायः ।। ५६ ।। उत्थानका- आगे कहते हैं कि अभेदनय से पाँच विशेषण सहित केवलज्ञान ही सुखरूप है |
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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