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________________ । पवयणसारो ___ स्वयं जातत्वात्, समन्तत्वात्, अनन्तार्थविस्तृतत्वात्, विमलत्वात्, अथग्रहादिरहितत्वाच्च प्रत्यक्षं ज्ञानं सुखमंकान्तिकमिति निश्चीयते, अनाकुलत्वैकलक्षणत्वात्सौख्यस्य । यतो हि परतो जायमानं पराधीनतया, असमंतमितरद्वारावरणेन, कतिपयार्थप्रवृत्तमितरार्थबुभुत्सया, समलमसम्यगवबोधेन, अवग्रहादिसहित क्रमकृतार्थग्रहणखेदेन परोक्षं ज्ञानमत्यन्तमाकुलं भवति । ततो न तत् परमार्थतः सौख्यम् । इदं तु पुनरनाविज्ञानसामान्यस्वमावस्योपरि महायिकाशेनाभिव्याप्य स्वत एव व्यवस्थितत्वात्स्वयं जायमानमात्माधीनतया, समन्तात्मप्रदेशान् परमसमक्षज्ञानोपयोगीभूयाभिध्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् अशेषद्वारापावरणेन, प्रसभं निपीतसमस्तवस्तुजेयाकारं परमं वैश्वरूप्यमध्यिाय व्यवस्थितत्वादनन्तार्थविस्तृतम् समस्तार्थाबुभुत्सया सकलशक्तिप्रतिबन्धककर्मसामान्यनि:कान्ततया परिस्पष्टप्रकाशभास्वरं स्वभावममिव्याप्य व्यवस्थितत्वाविमलम् सम्यगवबोधेन । युगपत्समर्पितत्रैसमयिकात्मस्वरूपं लोकालोकमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादवग्रहाविरहितं क्रमकृतार्थग्रहण खेदाभाथेन प्रत्यक्ष शालमनागुरु यति । इटावार नायक खलु सौख्यम् ॥५६॥ ___ भूमिका-अब, इसी प्रत्यक्षज्ञान को पारमार्थिकसुख ऐसे (अर्थात् यह प्रत्यक्षज्ञान हो पारमार्थिकसुख है ऐसा) बतलाते हैं: अन्वयार्थ-(१) [स्वयं जातं] अपने आप से उत्पन्न (स्व-आश्रयभूत-स्वाधीन) (२) [समंत] समंत (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ), (३) [अनन्तार्थविस्तृतं] अनन्त पदार्थों में फैला हुआ, (४) [विमलं] निर्मल [तु] और (५) [अवग्रहादिमिः रहित] अवग्रहादि से रहित, [ज्ञानं] ऐसा प्रत्यक्षज्ञान [ऐकान्तिकं सुखं] ऐकान्ति कसुख है (सर्वथा सुख रूप है) [इति भणितं] ऐसा (सर्वज्ञदेव के द्वारा) कहा गया है। टीका-(१) स्वयं उत्पन्न होने से (स्वाश्रित होने से अथवा स्वाधीन होने से) (२) समन्त (सर्व प्रदेशों से जानने वाला) होने से, (३) अनन्त पदार्थों में फैला हुआ होने से, (४) कर्म मल-रहित होने से और (५) अवग्रहादि से रहित होने से, प्रत्यक्षज्ञान ऐकान्तिक सुख रूप है, यह निश्चित होता है, क्योंकि सुख का एकमात्र लक्षण अनाकुलता है । इसी बात को विस्तारपूर्वक समझाते हैं: ऐन्द्रिय परोक्षज्ञान की दुखरूपता-(१) पर से उत्पन्न होता हुआ पराधीन होने (के कारण) से, (२) असमन्त (कुछ प्रदेशों द्वारा जानता हुआ) इतर द्वारों के आवरण (के कारण) से, (३) कुछ पदार्थों में प्रवर्तमान होता हुआ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा (के कारण) से, (४) कर्म मल सहित होता हुआ असम्यक् (विपरीत या अस्पष्ट)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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