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पवयमसारो ]
[ १३५ तात्पर्यवृत्ति अथ पुनरपि प्रकारान्तरेण प्रत्यक्ष परोक्षलक्षणं कथयति
जं परदो विष्णाणं तं तु परोक्खंत्ति भणि यत्परतः सकाशाद्विज्ञानं परिज्ञानं भवति तत्पुनः पशेकमिति भणित ! केषु क्षिपयेषु : अहसुज्ञ पदाचेंषु जवि केवलेण णाद हदि हि यदि केवलेनासहा येन ज्ञातं भवति हि फुट । केन कर्तु भूतेन ! जोवेण जीवेन त हि पच्चक्ख प्रत्यक्षं भवतीति।
__ अतो विस्तर:- इन्द्रियमनः-परोपदेशावलोकादिवहिरङ्गनिमित्तभुतात्तथैव च ज्ञानावरणीयक्षयोपशमनितार्थग्रहणशक्तिरूपाया उपलब्धे रविधारणरूपसंस्काराच्चान्तरङ्गकारणभूतात्सकाशादुप्पद्यते यद्विज्ञान तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते । यदि पुन: पूर्वोक्नसमस्तपरद्रव्यमनपेक्ष्य केवलाउद्धबुद्धं कस्वभावात्परमात्मन: सकाशात्समुत्पद्यते ततोऽक्षनामानमात्मानं प्रतीत्योत्पद्यमानत्वात्प्रत्यक्ष भवतीति सूत्राभिप्रायः एवं हेयभूतेन्द्रियज्ञानकथन मुख्यतया गाथाचतुष्टयेन तृतीयस्थल गतम् ।।५८||
उत्थानिका-आगे फिर भी अन्य प्रकार से प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान का लक्षण कहते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(अट्ठेसु) ज्ञेय पदार्थों में (परदो) दूसरे के निमित्त या सहायता से (जं विण्णाणं) जो ज्ञान होता है (तं तु परोपखं त्ति भणिदं) उस ज्ञान को तो परोक्ष है, ऐसा कहते हैं तथा (यदि केवलेण जीवेण णादं हि हवदि) जो केवल बिना किसी सहायता के जीव के द्वारा निश्चय से जाना जाता है सो (पच्चक्वं) प्रत्यक्ष ज्ञान है।
इसका विस्तार यह है कि इंद्रिय तथा मन-सम्बन्धी जो ज्ञान है वह पर के उपदेश, प्रकाश आदि वाहरी कारणों के निमित्त से तथा ज्ञानावरणीकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए अर्थ को जानने की शक्ति रूप उपलब्धि और अर्थ को जानने रूप संस्कारमयी अन्तरंग निमित्त से पैदा होता है वह पराधीन होने से परोक्ष है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु जो ज्ञान पूर्व में कहे हुए सर्व परद्रव्यों की अपेक्षा न करके केवल शुद्धबुद्ध एक स्वभावधारी परमात्मा के द्वारा उत्पन्न होता है वह अक्ष कहिये आत्मा उसी के द्वारा पैदा होता है इस कारण प्रत्यक्ष है, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है। इस तरह त्यागने योग्य इन्द्रिय-जनित ज्ञान के कथन की मुख्यता करके चार माथाओं से तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ॥५८॥ अर्थतदेव प्रत्यक्षं पारमार्थिकसौख्यत्वेनोपक्षिपति
जादं सयं 'समंत गाणमणंथवित्थडं विमलं । 'रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं त्ति एगतियं भणि' ॥५६॥ जातं स्वयं, समत, ज्ञानमनन्तार्थविस्तृत, विमलम् । रहितं स्वअवग्रहादिभिः, सुखमित्य कान्तिकं भणितम् ॥५६।।
१. समतं (ज० ३०) २, णाणमणंतत्थ विन्यदं । ३. रहियं (ज. व.)। ४. भणियं (ज. १०)।