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________________ पवयणसारो ] [ २६५ वैसे संज्ञादि लक्षण रूप से भी अभेद हो, ऐसा मानने से क्या दोष होगा ? इसका समाधान करते हैं कि ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है। वह मुक्तात्मा द्रव्य शुद्ध अपने सत्ता गुण के साथ प्रदेशों की अपेक्षा अभेद होते हुए भी संज्ञा आदि के द्वारा सत्ता और द्रव्य तन्मयो नहीं है। तन्मय होना ही निश्चय से एकता का लक्षण है किन्तु संज्ञादि रूप से एकता का अभाव है । सत्ता और द्रव्य में नानापना है। जैसे यहाँ मुक्तात्मा द्रव्य में प्रदेश के अभेद होने पर भी संज्ञादि रूप से नानापना कहा गया है, तैसे ही सर्व द्रव्यों का अपने-अपने स्वरूप, सत्ता गुण के साथ नानापना जानना चाहिये, ऐसा अर्थ है ॥१०६॥ अयातद्भावमुदाहृत्य प्रथयति सददव्यं सच्च गणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। जो खल तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो ॥१०७॥ सद्व्यं संश्च गुण: मंश्चैव च पर्याय इति विस्तारः । यः खलु तस्याभाव: स तदभाबोतद्भावः ।।१६७ यथा खल्बेकं मुक्ताफलस्त्रग्दाम, हार इति सूत्रमिति मुक्ताफलमिति त्रेधा विस्तार्यते, अर्थक द्रव्यं प्रध्यमिति गुण इति पर्याय इति त्रेधा विस्तार्यते। यथा चैकस्य मुक्ताफललबामः शुक्लो गुणः शुक्लो हारः शुक्लं सूत्र शुक्लं मुक्ताफलमिति त्रेधा विस्तार्यते । सर्थकस्य वग्यस्य सत्तागुणः सद्रव्यं सद्गुणः सत्पर्याय इति धा विस्तार्यते । यथा कस्मिन मुक्ताफलस्त्रग्दाम्नि यः शुषलो गुणः स न हारो न सूत्रं न मुक्ताफलं, यश्व हारः म मुक्ताफलं वास न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्यामाव: स तदमावलक्षणोऽतङ्कामोजन्यत्वानिबन्धनभूतः । तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो बन्नद्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वा स न सत्तागुण इतोतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तवभावसानोऽतभावोऽन्यत्व निबन्धनभूतः ॥१०७॥ भूमिका-अब, अतद्भाव को उदाहरण पूर्वक स्पष्ट बतलाते हैंम अन्वयार्ष-[सद्रव्यं ] 'सत्द्रव्य' [सत् च गुण:] 'सत्गुण' [च] और [सत् र एक पर्यायः] 'सत् पर्याय' [इति ] इस प्रकार [विस्तार:] (सत्ता गुण का) विस्तार है । वरमें परस्पर) [यः खलु] जो वास्तव में [तस्य अभावः] उसका (उस रूप होने का) समान है (अर्थात् सत् का सर्वथा द्रव्य रूप, अन्य गुण रूप या पर्याय रूप होने का अभाव और इसी प्रकार द्रव्य का अन्य गुण का या पर्याय का सर्वथा सत् होने का अभाव है) प्र] वह [तदभावः] उसका अभाव [अतभावः] अतद्भाव है। टीका-जैसे एक मोसियों की माला हार के रूप में सूत्र (धागा) के रूप में और
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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