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________________ २६४ ] [ पवयणसारो निर्गुण, एक गुण से निर्मित, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्भाव का अभाव है । इस कारण से ही, सत्ता और द्रव्य के कथंचित् अनर्थान्तरत्व ( अभिन्न पदार्थत्व, अनन्यपदार्थत्व) है, तथापि उनके सर्वथा एकत्व होगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि सद्भाव एकत्व का लक्षण है । जो उसरूप ज्ञात नहीं होता, वह ( सर्वथा ) एक कैसे हो सकता है ? ( नहीं हो सकता ) । परन्तु यह गुण और गुणी रूप से अनेक ही है, यह अर्थ है ।। १०६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पृथक्त्वलक्षणं किमन्यत्वलक्षणं च किमिति पृष्टे प्रत्युतरं ददाति I पविभत्तपत्तं पृधत्तं पृथत्ववं भवति पृथक्त्वाभिधानो भेदो भवति । किविशिष्टं ? प्रकर्षेण त्रिभक्तप्रदेशत्वं भिन्नप्रदेशत्वं । किंवत् ? दण्डदण्डिवत् । इत्थम्भूतं पृथत्ववं शुद्धात्म शुद्धसत्तागुणयोर्न घटते, कस्माद्धेतो ? भिन्नप्रदेशाभावात् । कयोरिव ? शुक्लवस्त्र शुक्ल गुणयोरिव इवि सासणं हि वीरस्स इति शासनमुपदेश आज्ञेति । करन ? वीरस्य वी भिजानामि कारक देवस्य अण्णत्तं तथापि प्रदेशाभेदेऽपि मुक्तात्मद्रव्यशुद्धसत्तागुणयोरन्यत्वं भिन्नत्वं भवति । कथम्भूतं ? अभावो अतद्भावरूपं संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदस्वभावम् । यथाप्रदेशरूपेणाभे दस्तथा संज्ञा दिलक्षणरूपेणाप्यभेदो भवतु को दोष इति चेत् ? नैवम् । ण तब्भवं होदि तन्मुक्तात्मद्रव्यं शुद्धात्मसत्तागुणेन सह प्रदेशाभेदेऽपि संज्ञादिरूपेण तन्मयं न भवति कहमेक्कं तन्मयत्वं हि किलैकत्वलक्षणं संज्ञादिरूपेण तन्मयं त्वभावमेकत्वं किन्तु नानात्वमेव । यथेदं मुक्तात्मद्रव्ये प्रदेशाभेदेऽपि संज्ञादिरूपेण नानात्वं कथितं तथैव सर्वद्रव्याणां स्वकीय स्वकीय स्वरूपास्तित्वगुणेन सह ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ १०६ ।। उत्थानिका— आगे आचार्य पृथक्त्व और अन्यत्व का लक्षण कहते हैं- अन्वय सहित विशेषार्थ - ( प विभतपदेसत्तं ) जिसमें प्रदेशों की अपेक्षा अत्यन्त भिन्नता हो (gधतमिदि ) वह पृथक्त्व है ऐसी ( वीरस्स हि सासणं ) श्री महावीर भगवान् की आज्ञा है । (अभाव) स्वरूप की एकता का न होना ( अण्णतम् ) अन्यत्व है । ( तब्भवं ण) ये सत्ता और द्रव्य एक स्वरूप नहीं हैं ( कहमेक्कं होदि ) अब किस तरह दोनों एक हो सकते हैं। जहां प्रदेशों की अपेक्षा एक दूसरे में अत्यन्त पृथकपना हो अर्थात् प्रदेश भिन्नभिन्न हों जैसे दण्ड और दण्डी में भिन्नता है । इसको पृथक्त्व नाम का भेद कहते है । इस तरह पृथक्त्व या भिन्नपना शुद्ध आत्मद्रव्य का शुद्ध सत्ता गुण के साथ नहीं सिद्ध होता है क्योंकि इनके परस्पर प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं हैं। जो द्रव्य के प्रदेश हैं वे ही सत्ता के प्रदेश हैं- जैसे शुक्ल वस्त्र और शुक्ल गुण का स्वरूप भेद है परंतु प्रवेश भेद नहीं है ऐसे गुणी और गुण के प्रवेश भिन्न-भिन्न नहीं होते। ऐसे श्रीवीर नाम के अंतिम तीर्थङ्कर परमदेव की आज्ञा है। जहां संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि से परस्पर स्वरूप की एकता नहीं है वहां अभ्यत्व नाम का भेद है ऐसा अन्यत्व या भिन्नपना मुक्तात्मा द्रव्य और उसके शुद्ध सत्ता गुण में है । यदि कोई कहे कि जैसे सत्ता और द्रव्य में प्रदेशों की अपेक्षा अभेद हैं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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