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________________ तात्पर्यवृत्ति अथ रागद्वेषमोलक्षणं भावबन्धस्वरूप माख्याति - [ पत्रयणसारो ] होता है, अकेला आत्मा बन्ध स्वरूप कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-एक तो आत्मा और दूसरा मोह रागद्वेषादिभाव होने से, मोहरागद्वेषादि भाव के द्वारा मलिन स्वभाव वाला आत्मा स्वयं ही भावबन्ध है ।।१७३॥ ४२१ उवओगमओ जीवो उपयोगमयो जीवः, अयं जीवो निश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनोप्रयोगमयस्तावत्तथाभूतोऽप्यनादिबन्धवमात्सोपाधिस्फटिकवत् परोपाधिभावेन परिणतः सन् । किं करोति ? मुज्झदि रज्जेदि या पस्सेदि मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि द्वेषं करोति । किं कृत्वा ? पूर्व पप्पा प्राप्य । कान् ? विविधे विसये निर्विषय परमात्मस्वरूप भावनाविपक्षभूतान्विविधपञ्चेन्द्रियविषयान् । जो हि पुणो यः पुनरित्थंभूतोऽस्ति जीवो हि स्फुटं तेहि संबंधो तैः सम्बद्धो भवति तैः पूर्वोक्तरागद्वेषमोहैः कर्तृभूतैर्मोहरागदेषरहित - जीवस्य शुद्धपरिणामलक्षणं परमधर्ममलभमानः सन् स जीवो बद्धो भवतीति । अत्र योसी रागद्वेषमोहपरिणामः स एव भावबन्ध इत्यर्थः || १७५ ॥ उत्थानका राग द्वेष मोह लक्षण के धारी भावबन्ध का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( उवओगमओ जीवो) उपयोगमयी जीव (विविधे विसये ) नाना प्रकार इन्द्रियों के पदार्थों को ( पप्पा ) पाकर (मुज्झदि) मोह कर लेता है ( रज्जेदि ) राग कर लेता है (वा) अथवा ( पवस्सेदि) द्वेष कर लेता है । (पुणो ) तथा (हि) निश्चय से (जो) वही जीव ( तेहि संबंधो) उन भावों से बन्धा है, यही भावबंध है । यह जीव निश्चयनय से विशुद्ध ज्ञान दर्शन उपयोग का धारी है तो भी अनादिकाल से कर्मबंध की उपाधि के दश से जैसे स्फटिकमणि उपाधि के निमित्त से अन्य भावरूप परिणमती है इसी तरह कर्मकृत औपाधिक भावों से परिणमता हुआ इन्द्रियों के विषयों से रहित परमात्म स्वरूप की भावना से विपरीत नाना प्रकार पंचेन्द्रियों के विषयरूप पदार्थों को पाकर उनमें राग द्वेष मोह कर लेता है । ऐसा होता हुआ यह जीव राग द्वेष मोह रहित अपने शुद्ध वीतरागमयी परमधर्म को न अनुभवता हुआ इन रागद्वेष मोह भावों के निमित्त से बद्ध होता है । यहां पर जो इस जीव के यह राग द्वेष मोह रूप परिणाम हैं सो ही भावबन्ध है || १७५ ॥ अथ भावबन्धयुक्ति द्रव्यबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति भावेण जेण जीवो पेच्छदि जागादि आगदं विसये । अयमात्मा १. उबएसो (ज० वृ० ) । रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसी ' ॥ १७६ ॥ भावेन येन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये । रज्यति तेनैव पुनर्बध्यते कर्मेत्युपदेशः ॥ १७६ ॥ साकारनिराकारपरिच्छेदात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनंव
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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