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________________ ४२२ ] [ पवयणसारो मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेन पश्यति जानाति च तेनयोज्यत एव । बोज्यनुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः। अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिक कर्म बध्यत एव, इत्येष मावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्धः ॥१७६॥ भूमिका-अब, मावबंध को युक्ति और द्रव्यबंध का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-[जीवः] जीव [येन भावेन] जिस (राग, द्वेष, मोह) भाव से [विषये आगतं] विषयागत पदार्थ को [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है, [तेन एव] उसी से [रज्यति] उपरक्त होता है, [पुनः] और (उसी से-उपरक्त भाव से) [कर्म बध्यते] कर्म बंधता है, [इति] ऐसा [उपदेशः] उपदेश है ।। ___टीका-यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिमासस्वरूप (ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थ समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता है और जानता है, उसी से उपरक्त होता है। जो यह उपराग (धिकार) है वह वास्तव में स्निग्धरूक्षत्वस्थानीय भावबंध है और उसी से अवश्य पौगलिक कर्म बंधता है। इस प्रकार यह द्रव्यबंध का निमित्त भावबंध है ।।१७६।। __ तात्पर्यवृत्ति अथ भावबन्धयुक्ति द्रव्यबन्धस्वरूपं च प्रतिपादयति भावेण जेण भावेन परिणामेन येन जीवो जीवः कर्ता पेच्छदि जाणादि निर्विकल्पदर्शनपरिणामेन पश्यति सविकल्पज्ञानपरिणामेन जानाति । किं कर्मतापन्नम् ? आगदं विसये आगतं प्राप्त किमपीप्टानिष्टं वस्तु पञ्चेन्द्रियविषये रज्जवि तेणेव पुणो रज्यते तेनैव पुनः आदिमध्यान्तजितं रागादिदोषरहितं चिज्ज्योतिःस्वरूपं निजात्मद्रव्यमरोचमानस्तथवाजानन्सन् समस्तरागादिविकल्पपरिहारेण भावयंश्च तेनैव पूर्वोक्तज्ञानदर्शनोपयोगेन रज्यते रागं करोति इति भावबन्धयुक्तिः । बज्मदि कम्म त्ति उबएसो तेन भावबन्धेन नवतरद्रव्यकर्म बध्नातीति द्रव्यबन्धस्वरूपं चेत्युपदेशः॥ एवं भावबन्धकथनमुख्यतया गाथाद्वयेन द्वितीयस्थलं गतम् । उत्यानिका—आग भावबंध के कारण होने वाला द्रज्यबन्ध और उसका स्वरूप बताते हैं__अन्वय सहित विशेषार्थ--(जोधो) जीव (जेण भावेण) जिस रागद्वेष मोहभाव से (विसये आगदं) इन्द्रियों के विषय में आए हुए इष्ट अनिष्ट पदार्थों को (पेच्छदि) देखता है (जाणादि) जानता है (तेणेव रज्जवि) उस ही भाव से रंग जाला है (पुणो) तब (कम्म) द्रव्यकर्म (बज्झवि) बन्ध जाता है (इति उचएसो) ऐसा श्री जिनेन्द्र का उपदेश है। यह जीव पांचों इन्द्रियों के जानने में जो इष्ट व अनिष्ट पदार्थ आते हैं उनको जिस परिणाम से निर्विकल्परूप से देखता है व सविकल्परूप से जानता है उसी हो दर्शनज्ञानमयो उपयोग
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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