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पवयणसारो ।
[ ४२३ से राग करता है क्योंकि वह आदि मध्य अन्त रहित व रागद्वेषादि रहित चैतन्य ज्योतिस्वरूप निज आत्म-द्रव्य को न श्रद्धान करता हुआ, न जानता हुआ और समस्त रागावि विकल्पों को छोड़कर नहीं अनुभव करता हुआ वर्तन कर रहा है इससे ही रागी द्वषी मोही होकर राग द्वेष मोहनार लेता है। सही शासबन्ध है। इसी भावबन्ध के कारण नवीन द्रव्यकर्मों को बांधता है, ऐसा उपरेश है ॥१७६॥
इस तरह भावबंध के कथन की मुख्यता से दो गाथाओं में दूसरा स्थल पूर्ण हुआ। अथ पुद्गलजीवतदुभयबन्धस्वरूपं ज्ञापयति
फासेहिं पोग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमावीहि । अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥१७७।।
स्पर्शः पुद्गलानां बन्धो जीवस्य रागादिभिः ।
अन्योन्यमवगाहः पुदगलजीवात्मको भणितः ।।१७७॥ यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्यस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणामः स केवलपुद्गलबन्धः । यस्तु मावस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबन्धः । यः पुनः जीव. कर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभयवन्धः ॥१७७॥
भूमिका-अब पुद्गलबन्ध, जीवबन्ध और उन दोनों के बंध का स्वरूप कहते हैं
अन्वयार्थ-[स्पर्शः] स्पर्शों के साथ [पुद्गलानां बंधः] पुद्गलों का बंध, [रागादिभिः जीवस्य] रागादि के साथ जीव का बंध, और [अन्योन्यम् अवगाहः] अन्योन्य अवगाह | पुद्गलजीवात्मक: भणितः] पुद्गलजीवात्मक बंध कहा गया है ।
टोका-प्रथम तो यहां, कर्मों का जो स्निग्यता रूक्षतारूप स्पर्शविशेषों के साथ एकत्यपरिणाम है सो केवल पुद्गलबन्ध है, और जीयका औपाधिक मोह-राग-द्वेष रूप पर्यायों के साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीवबन्ध है, और जीव तथा कर्मपुद्गल के, परस्पर परिणाम के निमित्तमात्र से, जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है। [अर्थात् जीव और कर्मपुद्गल एक दूसरे के परिणाम में निमित्तमात्र हो, ऐसा जो (विशिष्ट प्रकार का) उनका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, सो यह पुद्गलजीवात्मक बंध है ॥१७॥
तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वनवतरपुड्गलद्रव्यकर्मणोः परस्परबन्धो जीवस्य तु रागादिभाबेन सह बन्धो जीवस्यैव नवतरद्रव्यकर्मणा सह चेति त्रिविधबन्धस्वरूप प्रज्ञापयति
१. पुग्गलाणं (ज० वृ.)। २. पुग्गलजीवप्पगो (अ० वृ०) ।