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________________ ४२४ ] [ पक्षयणसारो फासे हि पुग्गलाणं बंधी स्पर्शः पुद्गलानां बन्धः पूर्वभवत र मुद्गलद्रव्यकर्मणोर्जीवगतरागादिभावनिमित्तेन स्वकीयस्निग्धरूक्षोपादानकारणेन च परस्परस्पर्शसंयोगेन योसौ बन्धः स पुद् गलबन्धः । ओवरस रागमादीहिं जीवस्य रागादिभिनिश्परागपरम चैतन्यरूप निजात्मतत्वभावनाच्युतस्य जीवस्य यद्रागादिभिः सह परिणमनं स जीवबन्ध इति । अण्णोष्णस्वगाहो पुग्गलजीवप्पो भणिदो अन्योन्यस्यावगाहः पुद्गलजीवात्मको भणितः । निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरहितत्वेन स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषपरिणतजीवस्य बन्धयोग्य स्निग्धरूक्षपरिणामपरिणतपुद्गलस्य च योऽसौ परस्परावगाहलक्षणः स इत्थंभूतबन्धो जीवपुद्गलबन्ध इति त्रिविधबन्धलक्षणं ज्ञातव्यम् ॥ १७७॥ उत्थानिका --- आगे बंध तीन प्रकार है । एक तो पूर्व वद्ध कर्म मुगलों का नवीन पुद्गल कर्मों के साथ बंध होता है। दूसरा जीव का रागादि भाव के साथ बंध होता है । तीसरा उसी जीव का ही नवीन द्रव्य कर्मों से बन्ध होता है, इस तरह तीन प्रकार बन्ध के स्वरूप को कहते हैं— अन्वय सहित विशेषार्थ - ( पुग्गलाणं ) पुद्गलों का ( बन्धो ) बन्ध (फासेहि) स्निग्ध रूक्ष स्पर्श से, (जीवस्स) जीव का बन्ध ( रागमादीहिं) रागादि परिणामों से तथा ( पुग्गल - जीवध्यगो) पुद्गल और जीव का बन्ध (अण्णोष्णं अवगाहो ) परस्पर अवगाहरूप ( भणिदो ) कहा गया है । जीव के रागादि भावों के निमित्त से नवीन पौद्गलिक द्रव्यकर्मों का पूर्व में जीव के साथ बंधे हुए पौद्गलिक द्रव्यकमों के साथ अपने यथायोग्य चिकने रूखे गुण रूप उपादानकारण से जो बंध होता है उसको पुद्गल बंध कहते हैं। वीतराग परम चैतन्यरूप निज आत्मतत्व की भावना से शून्य जीव का जो रागादि भावों में परिणमन करना सो जोवबन्ध है । निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान रहित होने के कारण, स्निग्ध रूक्ष को जगह रागद्वेष में परिणमन होते हुए जीव का बंध योग्य स्निग्ध रूक्ष परिणामों में परिणमन होने वाले पुद्गल के साथ जो परस्पर अवगाहरूप बन्ध है वह जीव पुद्गल बन्ध है । इस तरह तीन प्रकार बन्ध का लक्षण जानने योग्य है ॥ १७७॥ अय द्रव्यबन्धस्य भायबन्धहेतुकत्वमुज्जीवयति - सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोग्गला' काया । पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठेति हि जंति बज्नंति ॥ १७८ ॥ सप्रदेश: स आत्मा तेषु प्रदेशेषु पुद्गलाः कायाः 1 प्रविशन्ति यथायोग्यं तिष्ठन्ति च यान्ति बध्यन्ते ॥ १७८ ॥ अयमात्मा लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशः । अथ तेषु तस्य प्रदेशेषु कायवामनोवगंणालम्बनः परिस्पन्दो यथा भवति तथा कर्मपुद्गलकायाः स्वयमेव परिस्पन्द १. पुग्गला (ज० वृ० ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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