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________________ पययणसारो । [ ४२५ वन्तः प्रविशन्त्यपि तिष्ठन्त्यपि गच्छन्त्यपि च । अस्ति चेज्जीवस्य मोहरागढषरूपो भावो बध्यतेऽपि च । ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य भावबन्धो हेतुः ॥१७॥ भूमिका-भव, यह बतलाते हैं कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है-- अन्वयार्थ- सः आत्मा] वह आत्मा [सप्रदेशः] सप्रदेशी है, [तेषु प्रदेशेषु] उन प्रदेशों में [पुद्गलाः कायाः] पुद्गल समूह [प्रविशन्ति ] प्रवेश करते हैं, [यथायोग्य तिष्ठन्ति] यथा योग्य रहते हैं. [यान्ति ] निकलते हैं [च] और [बध्यन्ते] बंधते हैं । टीका-यह आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी होने से सप्रदेशी है। उसके इन प्रदेशों में कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का आलम्बन वाला परिस्पन्द (कम्पन) जैसा होता है वैसे परिस्पन्द बाले कर्मपुद्गल के समूह स्वयमेव प्रवेश भी करते हैं, (रहते हैं) और निकलते भी हैं, यदि जीव के मोह-राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं। इसलिये निश्चित होता है कि द्रव्यबन्ध का हेतु भावबन्ध है ॥१७८।। तात्पर्यवृत्ति अथ बन्धो “जीवस्स रागमादीहि" पूर्वसूत्रे यदुक्तं तदेव रागत्वं द्रव्यबन्धस्य कारणमिनि विशेषेण समर्थयति सपदेसो सो अप्पा स प्रसिद्धात्मा लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वात्तावत्सप्रदेश: तेसु पदेसेसु पुग्गला काया तेषु प्रदेशेषु कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलकायाः कर्त्तार: पविसंति प्रविशन्ति । कथम् ? जहाजोग मनोवचनकायवर्गणालम्बनवीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगानुसारेण यथायोग्यम् । न केवलं प्रविशन्ति चिठति हि प्रवेणानन्तरं स्वकीयस्थितिकालपर्यन्तं तिष्ठन्ति हि स्फुटम् । न केवलं तिष्ठन्ति जंति स्वकीयोदयकाल प्राप्य फलं दत्वा गच्छन्ति । बज्नंति केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपमोक्षप्रतिपक्षभूतबन्धस्य कारणं रागादिकं लब्ध्वा पुनरपि द्रव्यबन्धरूपेण वध्यन्ते च । अत एतदायातं रागादिपरिणाम एव द्रव्यबन्धकारणमिति । अथवा द्वितीयव्याख्यानम्-प्रविशन्ति प्रदेशबन्धास्तिष्ठन्ति स्थितिबन्धाः फलं दत्त्वा गच्छन्त्यनुभागबन्धा बध्यन्ते प्रकृतिबन्धा इति ।।१७८॥ एवं त्रिविधबन्धमुख्यतया सूत्रद्वयेन तृतीयस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे पूर्व सूत्र में "जीवस्स रागमादोहि" इस वचन से जो रागपने को भावबंध कहा था वही द्रव्यबंध का कारण है, ऐसा विशेष करके समर्थन करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(सपदेसो) लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेशो होने से प्रदेशवान (सो) वह (अप्पा) आत्मा है (तेसु पदेसे सु) उन प्रदेशों में (पुग्गला काया) कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल पिंड (जहाजोग्ग) योगों के अनुसार (पविसंति) प्रवेश करते हैं, (तिळंति) ठहरते हैं, (य जंति) तथा उक्य होकर जाते हैं (बझंति) तथा फिर भी बंधते हैं। मन, वचन, कायवगंणा के आलम्बन से और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जो आत्मा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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