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________________ पवणसारो ] [ २६५ का पराभव करके, की जाती हैं, दीपक की भांति । यथा ज्योति (लो) के स्वभाव के द्वारा किया जाने वाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी स्वभाव का पराभव करके जाने वाली मनुष्यादि तेल के स्वभाव का पराभव करके प्रकार कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के पर्यायें कर्मके कार्य हैं ॥११७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ मनुष्यादिपर्याय: कर्मजनिता इति विशेषेण व्यक्तीकरोति- कम्मं कर्मरहितपरमात्मनां विलक्षणं कर्म कर्तृ कि विशिष्टं ? णामसमक्खं निर्नामनिर्गोत्रमुक्तामनो विपरीतं नामेति सम्यगाख्या संज्ञा यस्य तद्भवति नामसमाख्यं नामकर्मेत्यर्थः । सभावं शुद्धबुद्धेकपरमात्मस्वभावं अह् अथ अप्पणो सहावेण आत्मीयेन जानावरणादिस्वकीय स्वभावेन करणभूतेन अभिभूय तिरस्कृत्य प्रच्छाद्य तं पूर्वोक्तमात्मस्वभावं । पश्चाति करोति ? परं तिरियं रइयं वा सुरं कुणदि नरतियग्नारकसुररूपं करोतीति । अथमत्रार्थ: यथास्तिः कर्ता तैलस्वभावं कर्म्मतापन्नमभिभूय तिरस्कृत्य वर्त्याधारेण दीपशिखारूपेण परिणमयति, तथा कर्माग्निः कर्ता तैलस्थानीयं शुद्धात्मस्वभावं तिरस्कृत्य वर्तिस्थानीयशरीराधारेण दीपशिखा स्थानीयनरनारकादिपर्यायरूपेण परिणमयति । ततो ज्ञायते मनुष्यादिपर्यायाः निश्चयनयेन कर्मजनिता इति ॥ ११७ ॥ उत्थानिका -- आगे इसी सूत्र का विशेष कहते हुए बताते हैं कि ये मनुष्य आदि पर्यायें कर्मों के द्वारा पैदा होती हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अह ) तथा ( णामसमवखं कम्म ) नाम नामका कर्म ( सहायेण) अपने कर्म स्वभाव से ( अप्पणी सभावं ) आत्मा के स्वभाव को ( अभिभूय ) ढककर ( परं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि) उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी या देवरूप कर देता है । कर्मों से रहित परमात्मा से विलक्षण ऐसा कर्म जिसको भले प्रकार नाम संज्ञा की गई है, अर्थात् नाम कर्म जो नामरहित, गोत्र-रहित परमात्मा से विपरीत है, अपने ही सहभावीज्ञानावरणादि कर्मो के स्वभाव से शुद्धबुद्ध एक परमात्मस्वभाव को आच्छादन कर उसे नर, नारक, तियंच या देवरूप कर देता है। यहां यह विशेष अर्थ है-जैसे अग्नि कर्ता होकर तल के स्वभाव को तिरस्कार करके बत्ती के आधार से उस तेल को दीपक की शिखारूप में परिणमन कर देती है तंसे कर्मरूपी अग्नि कर्ता होकर तैल के स्थान में शुद्ध आत्मा के स्वभाव को तिरस्कार करके बत्ती के समान शरीर के आधार से उसे दीपक को शिखा के समान नर, नारकादि पर्यायों के रूप से परिणमन कर देती है। इससे जाना जाता है कि मनुष्य आदि पर्यायें निश्चय से कर्म-जनित हैं ॥ ११७ ॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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