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________________ पवयणसारो 1 [ ४३३ ध्येय भाव का अवस्था को अपेक्षा भेव है जब कि आत्म-द्रव्य की अपेक्षा अभेद है । इसी से जाना जाता है कि शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येयरूप है, ध्यान-भावनारूप नहीं है क्योंकि ध्यान नाशवंत है ।। १५१ ।। भावार्थ- शुभ राग यद्यपि पुण्य बन्ध का कारण है तथापि वह शुभ राग व पुष्प मोक्ष का कारण है । विधुततमसो रागस्तपः श्रुतनिबन्धनः । सन्ध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥१२२॥ [आत्मानुशासन ] अर्थ - जिसने अज्ञान अन्धकार दूर कर दिया है ऐसे जीव के तप शास्त्रादिकसम्बन्धी रागभाव है तो कल्याण के उदय के लिये ही है। जैसे सूर्य की प्रभातकाल सम्बन्धी रक्तता रात्रि सम्बन्धी अन्धकार का नाश कर प्रकाश के लिये कारण है । "लोहो सया पेज्जं तिरयणसाहण विसयलोहादो सग्गापवगाणमुत्पत्ति दंसणादो ।" ० ३६९] अर्थ - लोभ कथंचित् पेज्ज (राग) है, क्योंकि रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है ॥ १५१ ॥ इस तरह द्रव्यबंध का कारण होने से मिथ्यात्व रागादि विकल्परूप भावबन्ध ही निश्चय से बन्ध है ऐसे कथन को मुख्यता से तीन गाथाओं के द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्तिसिद्धये स्वपरविभागं दर्शयतिभणिदा पुढविष्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । अण्णा ते जीवादी जोवो वि य तेहिंदो अण्णो ।। १८२ ॥ भणिताः पृथिवीप्रमुखा जीवनिकाया अथ स्थावराश्च त्रसाः । अन्ये ते जीवाज्जीवोऽपि च तेभ्योऽन्यः ॥१८२॥ य एते पृथिवीप्रभृतयः षड्जीवनिकायास्त्र सस्थावरभेदेनाभ्युपगम्यन्ते ते खल्दचेतनत्वादन्ये जीवात्, जीवोऽपि च चेतनत्वावन्यस्तेभ्यः । अत्र षड्जीवनिकायात्मनः परद्रव्यमेक एवात्मा स्वद्रव्यम् ॥ १८२ ॥ भूमिका – अब, जीव की स्वथ्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य से निवृत्ति की सिद्धि के लिये स्वपर का विभाग बतलाते हैं अन्वयार्थ ---- [ अथ ] अब जो [ पृथिवीप्रमुखाः ] पृथ्वी आदि प्रमुख [ जीवनिकायाः ] जीवनिकाय (स्थावराः च त्रसाः ] स्थावर और त्रस [ भणिताः ] कहे गये हैं, [ते] वे
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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