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________________ ४३४ ] [ पवयणसारो जीवात जीव को अन्य हैं, [1] और [जीव: अपि] जीव भी [तेभ्यः अन्यः] उनसे अन्य है। टीका--जो यह पृथ्वी इत्यावि षट् जीवनिकाय सस्थावर के भेदपूर्वक माने जाते हैं, वे वास्तव में अचेतनत्व के कारण जीव से अन्य हैं, और जीव भी चेतनत्व के कारण उनसे अन्य है । यहाँ (यह कहा है कि आत्मा के षट् जीवनिकाय परद्रव्य हैं, एक आत्मा ही स्वद्रव्य है.॥१२॥ तात्पयत्ति अथ जीवस्य स्वद्रव्यप्रवृत्तिपरद्रव्यनिवृत्तिनिमित्तं षड्जीबनिकायः सह भेदविज्ञानं दर्शयति, भणिवा पुढविप्पमुहा भणिताः परमागमे कथिताः पृथिवीप्रमुखाः । ते के ? जीवणिकाया जीवसमूहाः अध अथ । कथंभूताः ? थावरा य तसा स्थावराश्च वसाः । ते च किविशिष्टाः ? अण्णा ते अन्ये भिन्नास्ते । कस्मात् ? जीवादो शुद्धबुद्धकजीवस्वभावात्। जीवोवि य तेहिंदो अपणो जीवोऽपि च तेभ्योऽन्य इति । तथाहि टोत्कीर्णज्ञायकैनास्वभावपरमात्मतत्त्वभाबनारहितेन जीवेन यदुपाजितं प्रसास्थावरनामकर्म तदुदयजनितत्वादचेतनत्वाच्च बसस्थावरजीवनिकायाः शुद्धचैतन्यस्वभावजीवाद्भिन्ना:। जीवोऽपि च तेभ्यो विलक्षणत्वाद्भिन्न इति । अव भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीवः स्बद्रव्ये प्रवृत्ति परद्रव्ये निवृत्ति च करोतीति भावार्थः ॥१८॥ उत्थानिका-आगे इस जीव की अपने आत्मद्रव्य में प्रवृत्ति और पर द्रव्यों से निवृत्ति के कारण छ; प्रकार जीवकायों से भेदविज्ञान दिखलाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुढविप्पमुहा) पृथ्वी को आदि लेकर (जीवणिकाया) जीवों के समूह (अध थावरा य तसा) अर्थात् पृथ्वोकायिक आदि पांच स्थावर और द्वीन्द्रियादि त्रस (मणिदा) जो परमागम में कहे गए हैं (ते जीवादो अण्णा) ये सब शुद्धबुद्ध एक जीव के स्वभाव से भिन्न हैं (जीवो वि य तेहिंदो अण्णो) तथा यह जीव भी उनसे भिन्न है। टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावरूप परमात्मतत्त्व की भावना को न पाकर इस जीव ने जो अस या स्थावर नाम कम बांधा है उसके उदय से उत्पन्न होने के कारण अचेतन होने से ये उस स्थावर जीयों के समूह शुद्ध चैतन्य स्वभावधारी जीव से मिन्न हैं । जीव भी उनसे विलक्षण होने से उनसे भिन्न है। यहां यह प्रयोजन है कि इस तरह के भेदविज्ञान हो जाने पर मोक्षार्थी जीव अपने निज आत्मद्रव्य में प्रवृत्ति करता है और परद्रव्य से अपने को हटाता है ।।१२।। अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन स्वपरविभागज्ञानाशाने अवधारयति जो णवि जागदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज । कीरवि अज्सवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो ॥१८३॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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