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________________ ६४८ ] [ पवयणसारो क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्ध निधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ॥ ४२ ॥१ ज्ञाननयेन चणकमुष्टिको तचिन्तामणिगृहको वाणिजय द्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ॥ ४३ ॥ व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तर संयुज्यमान वियुज्यमानपरमाणुवबन्धमोक्ष यो सानुर्वात ॥४४॥ निश्चययेन केवलबध्यमान मुख्य मानबन्धमोक्षोचित स्निग्ध रूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुयद्बन्धमोक्षयोरद्वैतानुवति ॥४५॥ अशुद्धrयेन घटशरावविशिष्ट मृण्मा श्रवत्सोपाधिस्वभावम् ॥४६॥ शुद्धनयेन केवल मुम्माश्रवन्निरुपाधि की भांति क्रियानय से आत्मा अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि हो, अंधपुरुष को पत्थर के खम्भे के साथ सिर फोड़ने से सिर के रक्त का आंखें खुल जायें और निधान ( खजाना ) प्राप्त हो जाय ॥१॥४२॥ आत्मद्रव्य ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि साधित हो, ऐसा है, जैसे मुट्ठी भर चने देकर चिंतामणि रत्न खरीदने वाला घर के कौने में बैठा हुआ व्यापारी ॥ ४३ ॥ आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बंध और मोक्ष में दूसरे द्र्थ्य अर्थात् पुद्गल द्रव्य के साथ बंधता और छूटता है, बंधक (बांधने वाले) और मोचक ( छोड़ने वाले ) अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भांति । व्यवहारनय आत्मा मंत्र और पक्ष में पाले मुद्गल फर्म के साथ बंधने और छूटने से द्वंत को प्राप्त होता है जैसे परमाणु अन्य परमाणु के साथ संयोग को पानेरूप द्वैत को प्राप्त होता है और परमाणु के मोक्ष में वह परमाणु अन्य परमाणु से पृथक् होने रूप द्वैत को पाता है । १२४४।। ऐसा है, जैसे किसी विकार दूर होने से आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है, अकेले बध्यमान और मुध्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमाणु की भांति निश्चयनय से अपने रागादि और वीतराग परिणामों के कारण आत्मा अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, जैसे बंध और मोक्ष के योग्य स्निग्धत्व या रूक्षत्व गुणरूप परिणमित होता हुआ परमाणु अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है ॥४५॥ आत्मद्रव्य अशुद्धrय से, घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भांति, रागद्वेष रुप सोपाधिस्वभाव वाला है ॥४६॥ आत्मद्रव्य शुद्धनय से केवल मिट्टी मात्र को भांति, निरुपाधिस्वभाववाला है ||४७|| इसलिये कहा है 'जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयबादा । जावदिया गयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥ १. गो० क० ग्रा० ८१४ ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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