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________________ पवयणसारो । [ ६४६ स्वभावम् ॥४७॥ तयुक्तम्-"जावदिया वयणयहा तावदिया खेव होंति णयवादा । मावदिया भयवाचा ताबदिया पव होंति परसमया ।" "परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सम्बहा बयणा । जइणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो ॥" एयमनया विशा प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तयै निरूप्यमाणमुदन्बदन्तरालमिलवलनीलगाङ्गयामुनोदकभारवदनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रणाशक्यविवेचनस्वादमेचकस्त्रभावैफधर्मव्यापककमित्याधयोवितकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानातनयव्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु समस्ततरङ्गिणोपयःपूरसमवायात्मककमकराकरवनन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्यविवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकमित्यात् यथोदितामेकान्तात्मात्मद्रव्यम् । परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सम्वहा बयणा। जहणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो ।। अर्थ---जितने वचनपंथ हैं उतने वास्तव में नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (मत) हैं। ___परसमयों (मिथ्यामतियों) का बचन 'सर्वथा' कहा जाने से वास्तव में मिथ्या है, और जनों का वचन 'कथंचित्' कहा जाने से वास्तव में सम्यक है। इस प्रकार इस सूचनानुसार एक एक धर्म में एक एक नय (व्यापे), इस प्रकार अनन्त-धों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किया जाय तो, समुद्र के भीतर मिलने वाले श्वेत-नील गंगा-यमुना के जलसमूह की भांति, अनन्तधर्मों को परस्पर अतद्भावमात्र से पृथक् करने में अशक्य होने से, आस्मद्रव्य अमेचफ स्वभाव वाला एक धर्म में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त एकान्तात्मक (एकधर्मस्वरूप) है। परन्तु युगपत् अनन्तधर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्त होने वाला एक श्रुतनानस्वरूप प्रमाण से निरूपण किया जाय तो, समस्त नदियों के जलसमूह के समवायात्मक (समुवायस्वरूप) एक समुद्र की भांति, अनन्तधर्मों को वस्तुरूप से पथक् करना अशक्य होने से आस्मद्रव्य मेचक स्वभाव वाले अनन्तधमों में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त अनेकान्तात्मक (अनेकधर्मस्वरूप) है। [जैसे-एक समय एक नदी के जल को जानने वाले ज्ञानांश से देखा जाय तो समुद्र एक नदी के जलस्वरूप ज्ञात होता है, उसी प्रकार एक समय एक धर्म को जानने वाले एक नय से देखा जाय तो आत्मा एक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है, परन्तु जैसे एक ही साथ सर्व नदियों के जल को जानने वाले ज्ञान से देखा जाय तो समुद्र सर्व नदियों के जलस्वरूप जात होता है, उसी प्रकार एक ही साथ सर्व धमों को जानने वाले प्रमाण से देखा जाय तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है। इस प्रकार एक नय से देखने पर आत्मा एकान्तात्मक है और प्रमाण से देखने पर अनेकान्तात्मक है।] १. मो० को गा० ८६५।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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