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________________ ६३८ ] [ पचयणसारों स्थित है । (आत्मा को कार्माणशरीर में या तैजसशरीर में स्थित कहना भी अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है) । तथा वही आत्मा उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से काष्ठ के आसन आदि पर बैठे हुए देवदस के समान व समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञ के समान किसी विशेष ग्राम गृह आदि में स्थित है इत्यादि परस्पर अपेक्षारूप अनेक नयों के द्वारा जाना हुआ या व्यवहार किया हुआ यह आत्मा अमेचक स्वभाव की दृष्टि से विवक्षित एक स्वभाव में व्यापक होने से एक स्वभावरूप है । वही जीव द्रव्य प्रमाण की दष्टि से जाना हुआ मेचक स्वभावरूप अनेक धर्मों में एक ही काल चित्रपट के समान ध्यापक होने से अनेक स्वभाव स्वरूप है । इस तरह नय प्रमाणों के द्वारा तत्त्व के विचार के समय में जो कोई परमात्म द्रव्य को जानता है । वही निर्विकल्पसमाधि के प्रस्ताव में या अवसर में निर्विकार स्वसंवेदनज्ञान से भी परमात्मा को जानता है अर्थात् अनुभव करता है । . प्रश्न--फिर शिष्य ने निवेदन किया कि भगवन् मैंने आत्मा नामक द्रव्य को समझ लिया अब आप उसकी प्राप्ति का उपाय कहिये। उत्तर-आचार्यभगवन्त कहते हैं-सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वभाव जो अपना परमात्म तत्त्व है उसका भले प्रकार श्रद्धान, उसी का ज्ञान व उसी का आचरण रूप अभेद या निश्चयरत्नत्रयमय जो निर्विकल्पसमाधि उससे उत्पन्न जो रागादि की उपाधि से रहित परमानन्दमय एक स्वरूप सुखामृत रस का स्वाद उसको नहीं अनुभव करता हुआ जसे पूर्णमासी के दिवस समुद्र अपने जल की तरंगों से अत्यन्त क्षोभित होता है, इस तरह रागद्वेष मोह की कल्लोलों से यह जीव जब तक अपने निश्चल स्वभाव में न ठहरकर क्षोभित या आकुलित होता रहता है तब तक अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को नही प्राप्त करता है । जैसे वीतराग सर्वज्ञ-कथित उपदेश पाना दुर्लभ है, वैसे ही एकेंद्रिय,, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-संज्ञी, पर्याप्त मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तम रूप इन्द्रियों की विशुद्धता, बाधारहित आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, सच्चे धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, उसका श्रद्धान करना, संयम का पालना, विषयों के सुख से हटना, कोधादि कषायों से बचना आदि परम्परा दुर्लभ सामग्री को भी कथंचित् काकतालीय न्याय से प्राप्त करके सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान केवलदर्शन स्वभाव अपने परमात्मतत्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व आचरण रूप अभेद रत्नत्रयमय निर्विकल्पसमाधि से उत्पन्न जो रागादि की उपाधि से रहित परमानन्दमय सुखामृत रस उसके स्वादानुभव का लाभ होते हुए, जंसे अमावस के दिन समुद्र जल की तरंगों से रहित निश्चल क्षोभरहित होता है, राग, द्वेष, मोह की कल्लोलों के क्षोभ से रहित होकर जंसा अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होता जाता है वैसा ही अपने शुद्धात्मस्वरूप को प्राप्त करता है।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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