SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा संख्या ११८ ११६ १२७ १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १९८ १२६ ( २२ ) विषय जीव की नारक, तियंच, देव रूप पर्यायें वास्तव में नामकर्म से निष्पन्न हैं । वे जीव अपने-अपने कर्मोदय में परिणमन करते हुए अपने स्वभाव को नहीं प्राप्त होते हैं द्रव्य की अपेक्षा जीव नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य हैं १३५ पृष्ठ संख्या इस संसार में कोई भी स्वभाव से स्थिर नहीं है तथा भ्रमण करते हुए जीव द्रव्य की जो क्रिया है, वही संसार है कर्म से मलिन आत्मा कर्मजनित अशुद्ध परिणामों को प्राप्त करता है, उन परिणामों के कारण कर्म बंधता है । इसलिये मिथ्यात्व व रागादि परिणाम ही भावकर्म हैं जो द्रव्यकर्म बंध का कारण हैं निश्चय नय से यह जीव अपने हो परिणाम का कर्त्ता है पुद्गल कर्मों का कर्त्ता नहीं है व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता है । पुगल भी निश्चय से अपने परिणामों का कर्त्ता हैं व्यवहार से जीव परिणामों का कर्त्ता है । आत्मा ज्ञानचेतना, कर्म चेतना और कर्मफलचेतना इन तोनचेतना रूप परिणमन करता है। कर्मचेतना, कर्मफलचेतना तथा ज्ञान चेतना का स्वरूप । अर्थविकल्पज्ञान है । विश्व अर्थ है । अर्थाकार का अवभासन विकल्प है। शुभोपयोग और गृहोपयोग का लक्षण तथा पन I आत्मा ही अभेदनय से ज्ञानचेतना, कर्मचेतना, कर्मफलचेतना रूप परिणमन करती है कर्ता, करण, कर्म तथा फल आत्मा ही है ऐसा निश्चय करने वाला मुनि यदि रागादि रूप नहीं परिणमन करता तो वह शुद्ध आत्मीक स्वरूप को पाता है द्रव्य- विशेष कथन द्रव्य जीव व अजीव तथा चेतन व अचेतन के भेद वाला है। लोक अलोक का भेद सक्रिय और निःक्रय के भेद से द्रव्य का कथन अथवा जीव पुद्गल में अर्थ व व्यञ्जन दोनों पर्यायें हैं तथा शेष द्रव्यों में अर्थ पर्याय है परिस्पन्दनक्रिया है १३० गुण विशेष से द्रव्यों में भेद होता है। १३१ मूर्त अमूर्त गुणों का लक्षण तथा पुद्गल मूर्त हैं शेष अमूर्त हैं मृतिक पुद्गल द्रव्य के गुणों का कथन १३२ १३३-३४ आकाश, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और जीवद्रव्य इन अमूर्तिक द्रव्यों २६६-६७ २६८-३०० के विशेष गुणों का कथन प्रदेशवान और अप्रदेशवान की अपेक्षा द्रव्यों में भेद अर्थात् कालद्रव्य के अतिरिक्त शेप द्रव्य अस्तिकाय हैं। ३०१-०२ ३०२-०४. ३०४-०७ ३०७-० ३०६ - ११ ३११-१२ ३१३-१८ ३१५-२० ३२०-२१ ३२२-२४ ३२४-२६ ३२६-२= ३२८-३२ ३३२-३६ ३३६--६८
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy