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पवयणसारो ]
पंचापि इन्द्रियप्राणाः मनोवचःकाया च त्रयो बलप्राणा; ।
आनपानप्राणा आयुःप्राणेन भवन्ति दश प्राणा: ॥१४६-१॥ पंचवि इन्दियपाणा इन्द्रियप्राणः पञ्चविधः, मण वनिकाया य तिण्णि बल पाणा विधा मनोवाक्काया बलप्राणः, आणप्पाणप्पाणो पुनपर्चक आनपानप्राणः, आउगपाणेण आयु:प्राणः । होंति सपाणा इति भेदेन दश प्राणास्तेऽपि । चिदानन्दकस्वभावात्परमात्मनो निश्चयेन भिन्ना ज्ञातव्या इत्यभिप्रायः ।।१४६-१॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि भेद नय से ये प्राण दस तरह के होते हैं--
अर्थ—स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियप्राण हैं । मन, वचन, काय ये तीन बलप्राण हैं। श्वासोच्छवास तथा आयुप्राण को लेकर दश प्राण होते हैं। ये बसों प्राण चिदानन्दमयी एक रूप परमात्मा से निश्चय से भिन्न हैं ऐसा जानना चाहिये, यह अभिप्राय है ॥१४६॥१॥ अथ प्राणानां निरुक्त्या जीवस्वहेतुत्वं पौद्गलिकत्वं च सूत्रयति
पाहि 'चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुवं । सो जीवो 'पाणा पुण 'पोग्गलदव्वेहि णिवत्ता ॥१४७॥
प्राणश्चतुभिर्जीवति जीवियति यो हि जीवितः पूर्वम् ।
स जीवः प्राणाः पुनः पुद्गलद्रव्य निर्वृत्ताः ॥१४७१। प्राणसामान्येन जीवति जीविष्यति जीवित वांश्च पूर्वमिति जीवः । एवमनादिसंतानप्रवर्तमानतया त्रिसमयावस्थत्वात्प्राणसामान्य जीवस्य जीवत्वहेतुरस्त्येव तथापि तन्नजीवस्य स्वभावत्वमावाप्नोति पुद्गलद्रव्य निवृत्तत्वात् ॥१४७॥
भूमिका--अब, व्युत्पत्ति द्वारा प्राणों को जीवत्व का हेतु और पौद्गलिकत्व सूत्र द्वारा कहते हैं
___ अन्वयार्थ— [य: हि] जो [चतुभिः प्राणैः] चार प्राणों से [जीवति ] जीता है, [जीविष्यात] जीवेगा, [जीवितः पूर्व | और पहले जीता था, [सः जीवः] वह जीव है। [पुनः] और [प्राणाः] प्राण [पुद्गल द्रव्यः निवृत्ताः] पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न (रचित) हैं।
टीका---(व्युत्पत्ति के अनुसार) जो प्राणसामान्य से जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, वह जीव है। इस प्रकार अनादि संतानरूप (प्रयाहरूप) प्रवृत्ति के कारण (संसार दशा में) त्रिकाल-स्थायी होने से प्राणसामान्य जीव के जीवत्व का हेतु है ही, तथापि वह उसका स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से रचित है ॥१४७।।
१. चहिं (ज० वृ०) २. ते पाणा (जल वृ०) ३. पुग्गद दव्वेहि (ज० ००) ।