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________________ पवयणसारो ] [ ३६५ निश्चयेन स्वतः सिद्धपरमचैतन्यस्वभावेन निश्चयप्राणेन जीव ति तथापि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशादायुराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि सम्बद्धः सन् जीवति । तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूपं न भवतीति भेदभावना ज्ञातव्येत्यभिप्रायः ।।१४५।। उत्थानिका-आगे ज्ञान और ज्ञेय को बताने के लिये तथा आत्मा का चार प्राणों के साथ भेद है इस भावना के लिये यह सूत्र कहते हैं ___ अन्वय सहित विशेपार्थ--(णिच्चो) द्रव्याथिक नय से नित्य अथवा किसी पुरुष विशेष से नहीं किया हुआ सदा से चला आया हुआ (लोगो) यह लोकाकाश (सपदेसेहि समग्गो) अपने ही असंख्यात प्रदेशों से पूर्ण है और (अठेहि गिठियो) सहज शुद्धबुद्ध एक स्वभावरूप परमात्म पदार्थ को आदि लेकर अन्य पदार्थों से भरा हुआ है अथवा अपनेअपने प्रदेशों को रखने वाले पदार्थों से भरा हुआ है (जो तं जाणदि) जो कोई इस ज्ञेय रूप लोक को जानता है (जीवो) सो जीव पदार्थ है तथा वह (पाणचउक्केणसंबद्धो) संसार अवस्था में व्यवहार से चार प्राणों का सम्बन्ध रखता है । निश्चय से यह जीव शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी है इसलिये यह ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है। शेष सब पदार्थ मात्र जेय हो हैं इस तरह ज्ञाता और ज्ञेय का विभाग है । तथा यद्यपि निश्चय से यह स्वयंसिद्ध परम चैतन्य स्वभावरूप निश्चय प्राण से जीता है तथापि व्यवहार से अनादि से कर्मबन्ध के वश से आयु आदि अशुद्ध चार प्राणों से भी सम्बन्ध रखता हुआ जीता है। यह चार प्राणों का सम्बन्ध शुद्ध निश्चय से जीव का स्वरूप नहीं है, ऐसी भेद भावना समझनी चाहिये यह अभिप्राय है ॥१४॥ अथ के प्राणा इत्यावेदयति इंदियवाणो य तधा' बलपाणो तह य आउपाणो य । आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होति पाणा ते ॥१४६॥ इन्द्रियप्राणश्च तथा बलप्राणस्तथा चायुःप्राणश्च । आनपानप्राणो जीवानां भवन्ति प्राणास्ते ।।१४६।। स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रीपञ्चकमिन्द्रियप्राणाः, कायवाङ्मनस्त्रयं बलप्राणाः, भवधारणनिमितमायुःप्राणः । उपचनन्यञ्चनात्मको मरुदानपानप्राणः ।।१४६॥ भूमिका-अब, प्राण कौन से हैं, सो बतलाते हैं ..-- -- ... - .-.---... १. तहा (ज• वृ०)।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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