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________________ २५६ ] [ पवयणसारो परन्तु असमान-जातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। इस प्रकार स्वतः (द्रध्यत्वेन) भ्रष और द्रव्य-पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्ययरूप द्रव्य उत्पाद व्यय प्रौव्य है ॥१०॥ तात्पर्यव त्ति अथ द्रव्यपर्यायेणोत्पादब्ययध्रौव्याणि दर्शयति, पाडुम्भयदि य प्रादुर्भवति च जायते अण्णो अन्यः कश्चिदपूर्वानन्तज्ञानसुखादिगुणास्पदभूतः शाश्वतिकः । स कः ? पज्जाओ परमात्मावाप्तिरूपः स्वभावद्रव्यपर्यायः पज्जओ वयदि अण्णो पर्यायो व्यातिविनश्यति । कथंभूतः ? अन्य: पूर्वोक्तमोक्षपर्यायाद्भिन्नो निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपस्यैत्र मोक्षपर्यायस्योपादानकारणभूतः । कस्य सम्बन्धी पर्याय: ? दय्वस्स परमात्मद्रव्यस्य तंपि दध्वं तदपि परमात्मद्रव्यं व य प ण उप्पण्णं शुद्धद्रव्याथिकन येन नैव नष्टं न चोपन्नम् ।। अथवा संसारिजीवापेक्षया देवादिरूपो विभावद्रव्यपर्यायो जायते मनुष्यादिरूपो विनश्यति तदेव जीवद्रव्यं निश्चयेन न त्रोत्पन्न न च विनाटे, पुलगलद्रव्यं वा अणुकादिस्कन्धरूपस्वजातीयविभावद्रव्यपर्यायाणां विनोशोत्पादेपि निश्चयेन न चोत्पन्न न च विनष्टमिति । तत; स्थितं यतः कारणादुत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण द्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि द्रव्यस्य विनाशो नास्ति, ततः कारणाद्रव्यपर्याया अपि द्रव्यलक्षणं भवन्तीत्यभिप्रायः ।। १०३।।। उत्थानिका--आगे इस बात को दिखलाते हैं कि द्रव्य में पर्यायों की अपेक्षा उत्पाद व्यय ध्रौव्य है-- ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(दब्बस्स) द्रव्य की (अण्णो पज्जाओ) अन्य कोई पर्याय (पाडुम्भवदि) प्रगट होती है (य) और (अण्णो पज्जाओ) अन्य कोई पूर्व पर्याय (वयदि) नष्ट होती है (तपि) तोभी (बच्चं) द्रव्य (णेव पणटुंण उप्पण्णं) न तो नाश हुआ है और न उत्पन्न हुआ है। शुद्ध आत्मा द्रव्य के जब कोई अपूर्व और अनन्त ज्ञान सुख आदि गुणों के स्थान तथा अविनाशी परमात्म-स्वरूप की प्राप्तिरूप स्वभाव द्रव्य-पर्याय अथवा मोक्षअवस्था प्रगट होती है तब इस मोक्ष-पर्याय से भिन्न तथा निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधिरूप मोक्ष पर्याय की उपादानकारणरूप पूर्व पर्याय नाश होती है । तथापि वह परमात्मा द्रव्य शुद्ध द्रव्याथिकनय की अपेक्षा न नष्ट होता है न उत्पन्न होता है। ___ अथवा संसारी जीव की अपेक्षा जब देव आदि रूप विभाव-द्रव्य-पर्याय उत्पन्न होती है तब ही मनुष्य आदि रूप पर्याय नष्ट होती है । तथा वह जीव द्रव्य निश्चय से न उपजा है, न विनष्ट है । इसी तरह पुद्गल द्रव्य पर जब विचार किया जाय तो मालूम होगा कि दो अणु का स्कन्ध, चार अणु का स्कन्ध आदि स्कन्धरूप स्वजातीय विभाव-द्रव्य पर्याय जब कोई उत्पन्न होती है तब पूर्व पर्याय को नाश करके ही पैदा होती है। तो भी
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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