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________________ १६० ] [ पवमणसारो मोहेन वा रायेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य जीवस्य । जायते विविधो बन्धस्तस्माते संक्षपयितव्याः ।।४।। एवमस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिनिमीलितस्य मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य तृणपटलावच्छन्नगर्तसंगतस्य करेणुकुट्टनीगानासक्तस्य प्रतिद्विरवदर्शनोद्धतप्रषिधावितस्य च सिन्धुरस्येव भवति नाम नानाविधो बन्धः । ततोऽमी अनिष्टकार्यकारिणो मुमुक्षुणा मोहरागद्वेषाः सम्यग्निर्मूलकाषं कषित्वा क्षपणीयाः ॥४॥ भूमिका-अब, (मोह से) अनिष्ट कार्य के कारण-पने को कह कर तीन भेद वाले भी मोह के नाश करने को सूत्र द्वारा कहते हैं: अन्वयार्थ----[वा मोहेन] अथवा मोह से, [वा रागेण] अथवा राग से, [वा द्वेषेण अथवा द्वेष से [परिणतस्य जीवस्य] परिणत जीव के [विविधः बन्धः] विविध (नाना प्रकार) का बन्ध [जायते] होता हैं। [तस्मात्] इसलिये [ते] वे (मोह, राग, द्वेष) [संक्षपयितव्याः ] पूर्णतया नाश करने गेग्य हैं। ___टीका-इस प्रकार (१) तत्त्व को अप्रतिपत्ति (वस्तु-स्वरूप के अज्ञान) से (२) मोह रूप से अथवा रागरूप से अथवा द्वेषरूप से परिणत, ऐसे इस जीव के (१) धास के ढेर से ढके हुए खड्डे को प्राप्त होने वाले, (२) हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर में आसक्त, तथा (३) विरोधी हाथी को देखकर उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ने वाले हाथी की भांति, विविध प्रकार का बन्ध होता है। इस कारण से अनिष्ट कार्य को करने वाले मोह, राग और द्वेष मुमुक्षु द्वारा भले प्रकार जड़मूल से उखाड़कर नाश करने चाहिये (अर्थात् जिस प्रकार से उनकी सत्ता बिल्कुल समाप्त हो जाय, उस प्रकार से नाश करने चाहिये) ॥५॥ तात्पर्यवत्ति अथ दुःखहेतुभूतबन्धस्य कारणभूना रागद्वेषमोहा निर्मूलनीया इत्याघोषयति-- मोहेण व रागेण व बोसेण व परिणवस्त जीवस्स मोहरागद्वेषपरिणतस्य मोहादिरहितपरमात्मस्वरूपपरिणतिच्युतस्य बहिर्मुख जीवस्य जायवि विविहो बंधो शुद्धोपयोगलक्षणो भावमोक्षस्तबलेन जीवप्रदेशकर्मप्रदेशानामत्यन्तविश्लेषो द्रव्यमोक्षः, इत्थंभूतद्रव्यभाव मोक्षाद्विलक्षणः सर्वप्रकारोपादेयभूतस्वाभाविकसुखविपरीतस्य नारकादिदुःखस्य कारणभूतो विविधबन्धो जायते। तम्हा ते संखवइदव्या यतो रागद्वेष मोहपरिणतस्य जीवस्येत्थंभूतो बन्धो भवति ततो रागादिरहितशुद्धात्मध्यानेन ते रागद्वेषमोहाः सम्यक् क्षपयितव्या इति तात्पर्यम् ।।४।। ___ उत्थानिका--आगे आचार्य यह घोषणा करते हैं कि इन राग द्वेष मोह को जो संसार के दुखों के कारणरूप कर्मबंध के कारण हैं, निर्मूल करना चाहिए।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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