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________________ १६२ ] [ पवयणसारो तीन लिंगों से ( तीन प्रकार के मोह को) पहिचानकर, तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीन प्रकार का मोह नष्ट कर देने योग्य है ॥६५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ स्वकीयस्वकीयलिङ्ग रागद्वेषमोहान् ज्ञात्वा यथासंभवं त एव विनाशयितव्या इत्युपदिशति- अट्ठे अजधागहणं शुद्धात्मादिपदार्थे यथास्वरूपस्थितेऽपि विपरीताभिनिवेशरूपेणायथाग्रहणं करुणाभावो य शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमो पेशा संयमाद्विपरीतः करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभावः । केषु विषयेषु ? मणुवतिरिएसु मनुष्यतिर्यग्जीवेषु इति दर्शनमोहचिन्हं | बिसयेसु अध्वसंगो निर्विषयसुखास्वादरहित बहिरात्मजीवानां मनोज्ञामनोज्ञविषयेषु च यस प्रकर्षेण सङ्गः संगगंस्तं दृष्ट्वा प्रीत्यप्रीतिलिङ्गाभ्यां चारित्रमोहसंज्ञौ रागद्वेषी च ज्ञायेते विवेकिभिः, ततस्तत्परिज्ञानानन्तरमेव निर्विकारस्वशुद्धात्मभावनया मोहस्सेदक्षणि लिंगाणि रागद्वेषमोहा निहन्तव्या इति सूत्रार्थः ॥ ८५ ॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि राग द्वेष मोहों को उनके चिन्हों से पहचानकर यथासम्भव उनका विनाश करना चाहिये । अन्वय सहित विशेषार्थं - ( अट्ठे अजधागहणं ) शुद्ध आत्मा आदि पदार्थों के स्वरूप में उनका जैसा स्वभाव है उस स्वभाव में उनको रहते हुए भी विपरीत अभिप्राय से और का और अन्यथा समझना तथा ( करुणाभावो य मणुवतिरिएस) शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप परम उपेक्षा संयम से विपरीत दया का परिणाम अथवा व्यवहारनय की अपेक्षा से तियंञ्च मनुष्यों में दया का अभाव होना दर्शनमोह का चिन्ह है (विसएसु अप्पसंगो) विपय-रहित सुख के स्वाद को न पाने वाले बहिरात्मा जीवों का इष्ट अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में जो अधिक संसर्ग रखना क्योंकि इसको देखकर विवेकी पुरुष प्रीति अप्रीतिरूप चारित्रमोह के राग द्व ेष भेद को जानते हैं, इसलिये (मोहस्राणि लिंगाणि) मोह के ये ही चिन्ह हैं । अर्थात् इन चिन्हों को जानने के पीछे ही विकार - रहित अपने शुद्ध आत्मा की भावना के द्वारा इन राग द्व ेष मोह का घात करना चाहिये, ऐसा सूत्र का अर्थ है ॥८५॥ भावार्थ - यहाँ पर करुणा में जो अध्यवसाय है उसको अथवा करुणा के अभाव को मोह का चिन्ह कहा है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने बोधपाहुड गाथा २५ में 'धम्मो क्याविसुद्ध' शब्दों द्वारा यह कहा है कि धर्म क्या करि विशुद्ध है, भावपाहुड गाथा १३१ में मुनि को जीवों की रक्षा करने का उपदेश दिया है। शीलपाहुड गाथा १६ में जीव दया को जीव का स्वभाव बतलाया है जीवदया दम सच्चे अचोरियं वंभचेर संतोसे । समहंसण णाणं तओ य सोलस्स परिवारो ॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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