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________________ पवयणसारो ] [ ४०१ गाथा में गुण शब्द से शक्ति के अंशों को अर्थात् अविभाग प्रतिच्छेदों को ग्रहण करना चाहिये । जैसे पहले कहे हुए जलबिंदु तथा बालू के दृष्टांत से जिन जीवों का रागद्वेष परमानन्दमयी स्वसंवेदन ज्ञानगुण के बल से नष्ट हो गया है उनका कर्म के साथ बन्ध नहीं होता। इसी तरह जिन परमाणुओं में जघन्य चिकनाई या रूखापन है, उनका भी किसी से बंध नहीं होता। बन्ध दो अंश की अधिकता से दो अंश या तीन अंश आदि धारी परमाणुओं का परस्पर होगा जैसा इस गाथा में कहा है "णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुबखेण दुराहिएण। णिशस्स लुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णबज्जे विसमे समे था। (धवल पु० १४ पृ० ३३ गा० ३६) भाव यह है कि स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है तथा स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुण के अतिरिक्त विषम अथवा सम गुण के रहने पर बन्ध होता है ॥१६६॥ भावार्थ--पुद्गल परमाणुओं के बन्ध के विषय में दो परम्परायें उपलब्ध होती हैं । धवल परम्परा के अनुसार निम्न व्यवस्था फलित होती है-- क्रमाङ्क गुणांश सदृशबंध विसदृशबंध - - जघन्य जघन्य जघन्य+अजधन्य अजघन्य+सम-अजघन्य अजघन्य+एकाधिक-अजघन्य अजघन्य + द्वयधिक-अजघन्य अजवन्य+अयादिक अधिक-अजघन्य held श्री सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में "णिद्धस्स णि ण' उपर्युक्त षट्खंडागम को गाथा उद्धृत की गई है किन्तु इस गाथा के उत्तरार्द्ध के अर्थ में धवलाकार से मतभेद है। श्री सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार निम्न व्यवस्था फलित होती है
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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