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________________ ४०० । [ पवयणसारो "णिद्धा णिद्धेण बसंति लुक्खा लुक्खा य पोग्गला। णिलुक्खा य बाति रूवारूबी य पोग्गला ॥" "णिद्धस्स णि ण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंधो महष्णवज्जे विसमे समे वा ॥" अर्थ---पुद्गल 'रूपी' और 'अरूपी' होते हैं। उनमें से स्निग्ध पुदगल स्निग्ध के साथ बंधते हैं, रूक्ष पुद्गल रूक्ष के साथ बंधते हैं। स्निग्ध और रूक्ष भी बंधते हैं । जघन्य के अतिरिक्त सम अंश वाला हो या विषम अंश वाला हो, स्निग्ध का दो अधिक अंश वाले स्निग्ध परमाणु के साथ, रूक्ष का दो अधिक अंश वाले रूक्ष परमाणु के साथ और स्निग्ध का रूक्ष परमाणु के साथ बंध होता है ॥१६६।। तात्पर्यवृत्ति अथ तमेवार्थं विशेषेण समर्थयति: गुणशब्दवाच्यशक्तिद्वययुक्तस्य स्निग्धपरमाणोश्चतुर्गण: स्निग्धेन रूक्षेण वा समशन्दसंज्ञेन तथैव त्रिशक्तियुक्तरूक्षस्य पञ्चगुणरूक्षेण स्निग्धेन वा विषमसंज्ञेन द्विगुणाधिकत्वेन सति बन्धो भवतीति ज्ञातव्यम । अयं तु विशेष:--परमानन्दैकलक्षणस्वसंवेदनशानबलेन हीयमानरागद्वेषत्वे सति पूर्वोक्तजलवालकादष्टान्तेन यथा जीवानां बन्धो न भवति तथा जघन्यस्निग्धरूक्षत्वगुणे सति परमाणूनां चेति । तथा चोक्तम् "णिद्धस्स णिद्वेण दुराधिगेण लुक्खस्स लुक्खेण दुराधिगेण । णिद्धस्स लुखेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा" ॥१६॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्निग्धरूक्षपरिणतपरमाणुस्वरूपकथनेन प्रथमगाथा । स्निग्धरूक्षगुणविवरणेन द्वितीया । स्निग्धरूक्षगुणाभ्यां व्यधिकत्वे सति बन्धकथनेन तृतीया । तस्य॑व दृढीकरणेन चतुर्थी चेति परमाणूनां परस्परबन्दव्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । उत्थानिका--आगे इसी ही पूर्व कहे हुए भाव को विशेष समर्थन करते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(णिद्धत्तणेण) चिकनेपने की अपेक्षा (दुगुणो) दो अंशधारी परमाणु (चबुगुणणिद्धेण वा लुक्खेण) चार अंशधारी चिकने या रूखे परमाणु के साथ (बंघं अणुभवदि) बन्ध को प्राप्त हो जाता है। (तिगुणिदो अणु) तीन अंशधारी या रूखा परमाणु (पंचगुणजुत्तो) पांच अंशधारी चिकने या रूखे परमाणु के साथ (बज्मदि) बन्ध जाता है। १. किसी एक परमाणु की अपेक्षा से विसदृशजाति का समान अंशों वाला दुसरा परमाणु 'रूपी कहलाता है, और शेष सब परमाणु उसकी अपेक्षा से 'अरूपी कहलाते हैं। जैसे-पांच अंग स्निग्धतावाले परमाणु को पांच अंश रूक्षनावाला दूमरा परमाणु 'रूपी' है और शेष सब परमाणु उसके लिए 'अरूपी' हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि-विसदशजानि के समान अंश वाले परमाणु परस्पर रूपी' हैं और सदृशजाति के अथवा विसदृश जाति के असमान अंश वाले परमाणु परस्पर 'अरूपी' हैं।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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