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पवयणसारो ।
[ २३३ कुंडल आदि पर्यायों का अस्तित्त्व या निज भाव है। तैसे ही मुक्तात्मा के केवलज्ञान आदि गुण और अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार आदि पर्यायों के साथ जो मुक्तात्मा अपने
ध्य क्षेत्र काल भावों की अपेक्षा अभिन्न है उस मुक्तात्मा का जो अस्तित्व है, वहीं केवलज्ञानादि गुण तथा अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार आदि पर्यायों का अस्तित्त्व या निजमाव जानना चाहिये। अब उत्पाद व्यय छौव्य का भी द्रव्य के साथ जो अभिन्न अस्तित्त्व है उसको कहते हैं। जैसे स्वर्ण के द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा स्वर्ण से अभिन्न कटक पर्याय का उत्पाद और कंकण पर्याय का विनाश तथा स्वर्णपने का प्रौव्य इनका जो अस्तित्त्व है वही स्वर्ण का अस्तित्त्व व उसका निज भाव या स्वरूप है । तैसे ही परमात्मा के द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा परमात्मा से अभिन्न मोक्ष पर्याय का उत्पाद और मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा इन दोनों के आधारभूत परमात्म-द्रव्यपने का धोव्य इनका जो अस्तित्व है वही मुक्तात्मा द्रष्य का अस्तित्त्व या उसका निजभाव या
स्वरूप है । और जैसे अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा कटक पर्याय का उत्पाव और । कंकण पर्याय का व्यय तथा इन दोनों के आधारभूत स्वर्णपने का धौव्य इनके साथ अभिन्न
जो स्वर्ण उसका जो अस्तित्त्व है वही कटक पर्याय का उत्पाद, कंकण पर्याय का व्यय तया इन दोनों के आधारभूत स्वर्णपना रूप धोव्य इनका अस्तित्त्व या निजमाव या स्वरूप है । तैसे ही अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा मोक्ष पर्याय का उत्पाद, और मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा दोनों के आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्यपनारूप धौव्य इनके साथ अभिन्न जो परमात्मा द्रव्य उसका जो अस्तित्त्व है वही मोक्ष पर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा इन दोनों के आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्य रूप प्रौव्य इनका अस्तित्व या निजभाव या स्वरूप है। इस तरह जैसे मुक्तात्मा द्रव्य का अपने ही गुण पर्याय और उत्पाद प्रोग्य के साथ स्वरूप का अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व अभिन्न स्थापित किया गया है तैसे ही शेष सर्व द्रव्यों का भी स्वरूप-अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व स्थापित करना चाहिये । इस गाथा का यह अर्थ है।
भावार्थ-इस गाथा में आचार्य ने स्वरूप-अस्तित्व या अवान्तर-सत्ताका स्वरूप बताया है । हर एक द्रव्य अपने अखण्ड जितने प्रदेशों को लिये है चाहे वह एक प्रदेश हो
अनेक, यह द्रव्य उतने प्रदेशों के साथ अपनी सत्ता को दूसरे द्रव्य से पृथक् रखता है । तथा असकी इस अवान्तर या पृथक सत्ता में ही गुणपर्यायपना या उत्पाद व्यय नौव्य रहते सम कोई द्रव्य कभी अपनी सत्ता को छोड़ता है, न गुणपर्याय से रहित होता है, न उत्पाद
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