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________________ ४८२ ] [ पवयणसारो अनादि जन्य के पास जा रहा है । इस प्रकार बड़ों से, स्त्री से और पुत्र से अपने को छुड़ाता है। उसी प्रकार-अहो, काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हन, अर्थ, व्यंजन, और तदुभयसंपन्न ज्ञानाचार ! मैं यह जानता हूँ कि तू निश्चय से शुद्धात्मा का नहीं है, तथापि मैं तुझे तभी तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध करलू । अहो निःशंकितत्व, निःकांक्षित्व, निविचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपवहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, और प्रभावनास्वरूप वर्शनाचार ! मैं यह जानता हूं कि निश्चय से तू शुद्धात्मा का नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता है जब तक कि तेरे प्रसाव से शुद्धात्मा को उपलब्ध करलूं अहो ! मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत, पंचमहावत सहित काय, वचन, मनगुप्ति और ईर्याभाषा एषण-आवाननिक्षेपण-प्रतिष्ठापन समितिस्वरूप प्रारित्राचार ! में बह जानता हूँ कि सूशियस दो शुशाला का नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूं। अहो ! अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, यावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्गस्वरूप तपआचार ! मैं यह जानता हूँ कि निश्चय से तू शुद्धात्मा का नहीं है तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक तेरे प्रसाद से शद्धात्मा को उपलब्ध कर लं । अहो ! समस्त इतर आचारों में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति को नहीं छिपाने स्वरूप वीर्याचार ! मैं यह जानता हूँ कि तू निश्चय से शुद्धात्मा का नहीं हैं, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूं। इस प्रकार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार तथा वीर्याचार को अंगीकोर करता है ॥२०२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ श्रमणो भवितुमिच्छन्पूर्व क्षमितव्यं करोति;- 'उठ्ठिदो होदि सो समणो' इत्यने पष्ठगाथायां यद्व्याख्यानं तिष्ठति तन्मनसि धृत्वा पूर्व किं कृत्वा श्रमणो भविष्यतीति व्याख्याति; आपिच्छ आपृच्छ्य पृष्ट्वा । कम् ? बंधुवरगं बन्धुवर्ग गोत्रम् । ततः कथंभूतो भवति ? विमोचिदो विमोचितस्त्यक्तो भवति । कैः कर्तृभूतैः ? गुरुकलतपुत्तेहिं पितृमातृकलत्रपुत्रः । पुनरपि किं कृत्वा श्रमणो भविष्यति ? आसिज्ज आसाद्य आश्रित्य । कम् ? णाणसणचरित्ततववीरियायार ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमिति । अथ विस्तर:- अहो बन्धुवर्गपितमातृकलत्रपुत्राः ! अयं मदीयात्मा साम्प्रतमुद्भिन्नपरमविवेकज्योतिस्सन् स्वकीयचिदानन्दैकस्वभावं परमात्मानमेव निश्चयनयेनानादिबन्धुवर्ग पितरं मातरं कलत्रं पुत्रं चाश्रयति तेन कारणेन मां मुञ्चत यूयमिति क्षमितव्यं करोति ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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