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________________ २८० ] [ पवयणसारो को छोड़ देता है ? [न जहत्] नही छोड़ता हुआ वह [अन्यः कथं भवति] अन्य कैसे हो सकता है ? (अर्थात् वह अन्य नहीं, वह का वही है)। टीका-प्रथम तो द्रव्य, द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को कभी भी न छोड़ता हुआ, सत् ही है। द्रव्य के जो पर्यायभूत व्यतिरेकच्यक्ति का उत्पाद होता है, उसमें भी द्रव्यत्वभूत आव्यशक्ति का अच्युतपना होने से, द्रव्य अनन्य ही है, (अर्थात् उस उत्पाद में भी अन्वयशक्ति अपतित अविनष्ट-निश्चल होने से द्रव्य वह ही है, अन्य नहीं।) इसलिये अनन्यत्व के द्वारा द्रव्य के सत-उत्पाद निश्चित होता है, (अर्थात् उपरोक्त कथनानुसार द्रव्य का द्रध्यापेक्षा से, अनन्यत्व होने से, उसके सत्-उत्पाद है, ऐसा अनन्यत्व के द्वारा सिद्ध होता है । जैसे—द्रध्य का विचित्र पर्यायों में व्यापार होने के कारण से, जीव, द्रव्य होता हुआ, नारकत्व, तियंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व में से किसी एक पर्यायरूप अवश्य ही (परिणत) होगा । (परन्तु) वह जीव उस पर्यायरूप होकर क्या द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को छोड़ देता है ? नहीं लड़ता यति नहीं छोड़ना है तो भन्या से हो सकता है, कि जिससे त्रिकोटि सत्ता (तीन प्रकार की सत्ता, कालिक अस्तित्व) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव) यह हो न हो ? (अर्थात् तीनों काल में विद्यमान वह जीव अन्य नहीं, वह ही है।) ॥११२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तमेव सदुत्पादं द्रव्यादभिन्नत्वेन विवृणोति, जीवो जीवः कर्ता भवं भवन् परिणमन् सन् भविस्सदि भविष्यति तावत् । कि कि भविष्यति ? निर्विकारशुद्धोपयोगविलक्षणाभ्यां शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणम्य परोऽमरो वा परो नरो देवो परस्तिर्यनारकरूपो वा निर्विकारशुद्धोपयोगेन सिद्धो वा भविष्यति भवीय पुणो एवं पूर्वोक्तप्रकारेण पुनर्भवीय भूत्वापि । अथवा द्वितीयव्याख्यानं । भवन् बर्तमानकालापेक्षया भविष्यति भाविकालापेक्षया भूत्वा चेति भूतकालापेक्षया कालत्रये चैवं भूत्वापि कि दम्वत्तं पजहादि कि द्रव्यत्वं परित्यजति ? ण जहदि द्रव्याथिकनयेन द्रव्यत्वं न त्यजति द्रव्याशिन्नो न भवति । अपणो कहं हदि अन्यो भिन्नः कथं भवति ? किन्तु द्रव्यान्वयशक्तिरूपेण सद्भावनिबद्धोत्पादः स एवेति द्रव्यादभिन्न इति भावार्थः ।।११२।। उत्थानिका-आगे पहले कहा हुआ सत् उत्पाद द्रव्य से अभिन्न है ऐसा खुलासा करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ— (जीयो) यह आत्मा (म) परिणमन करता हुआ (णरोऽमरो वा परो) मनुष्य, देव या अन्य कोई (भविस्सदि) होवेगा (पुणो भवीय) तथा इस तरह होकर (किं वय्वसं पजहवि) क्या वह अपने द्रव्यपने को छोड़ बैठेगा ? (ण जहदि अष्णो कहं हववि) नहीं छोड़ता हुआ वह भिन्न कैसे होवेगा? अर्थात् द्रव्यपने से अन्य नहीं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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