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________________ १४ ] [ पवयणसारो भूमिका – आगे स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द हो वीतरागचारित्र को अभीष्ट फल (मोक्ष) का जनक होने से उपादेय और सरागचारित्र को अनिष्टफल --- स्वर्गादिकी प्राप्ति का कारण होने से हेय बतलाते है अन्वयार्थ -- | दर्शन - ज्ञानप्रधानात् ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को प्रधानता युक्त [ चारित्रात्] चारित्र से [ जीवस्य जीवों को | देवासुरमनुजराजविभवः] देवराज, असुरराज ( धरणेन्द्र) और मनुजराज (चक्रवर्ती) की विभूतियों के साथ [ निर्वाणम् ] निर्वाण भी [ संपद्यते ] प्राप्त होता है || ६ || टीका - दर्शन ज्ञान की प्रमुखता युक्त वीतरागचारित्र से मोक्ष प्राप्त होती है और उस ही ( दर्शन-प्रधान ) सरागचारित्र से देवराज, असुरराज और मनुजराज के वैभव का, ( ओ परिणाम में क्लेश-जनक है), सम्बन्ध प्राप्त होता है । इसलिये मुमुक्षु जीव को इट फल वाला होने से वीतराग चारित्र उपादेय है और अनिष्ट फल वाला होने से सरागचारित्र है है ||६|| विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ जो सुख का साधक जान संयमाचरण में अनुराग होता है उसका नाम सराग चारित्र है और वह पुण्यबन्ध का कारण होने से इन्द्राविकों की विभूति को प्राप्त कराता है । परन्तु यह सब विभूति वस्तुतः क्लेशजनक ही होती है । साक्षात् निराकुल सुख को सम्भावना उससे नहीं है । इसीलिये साक्षात् शाश्वतिक निर्बाध सुख के अभिलाषी उसे हेघ ही मानते हैं। यह बात अलग है कि जब कि जीव की शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिति नहीं होती है तब तक उन्हें अपेक्षाकृत वह भी ग्राह्य होता है, पर उनकी बुद्धि उसमें हेय रूप ही रहती है । इसके विपरीत जो रागभाव के बिना संयम रूप आचरण होता है, वह चूंकि साक्षात् मोक्ष का कारण होता है अतएव वह सर्वथा उपादेय ही होता है ॥ ६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथोपादेयभूतस्यातींद्रियसुखस्य कारणत्याद्वीतराग चारित्रमुपादेयम् । अतीन्द्रियसुखापेक्षया यस्येन्द्रिय सुखस्य कारणत्वात्सरागचारित्रं हेयमित्युपदिशति - संज्जइ संपद्यते किम् ? णिध्वाणं निर्वाणम् । कथम् ? सह । कः ? देवासुरमनुयरायविवेहि देवासुरमनुष्यराजविभवः । कस्य ? जीवस्स जोवम्य । कस्मात् ? चरितावो चारित्रात् । कथंभूतात् ? सणापहाणादो सम्यग्दर्शनज्ञानप्रधानादिति । तत्तथा आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये निश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं तल्लक्षणनिश्चय चारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते । किम् ? पराधी नेन्द्रियजनितज्ञानसुखविलक्षणं, स्वाधीनातीन्द्रियरूपपरमज्ञानसुखलक्षणं निर्वाणम् | सरागचारित्रा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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