________________
पवयणसारो ]
[ १५ पुनर्देवासुरमनुष्यराजविभूतिजनको मुख्यवृत्त्या विशिष्ट पुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्वाणं चेति । असुरेषु मध्ये सम्यग्दृष्टिः कथमुत्पद्यते इति चेत्? निदानबन्धेन सम्यक्त्वविराधनां कृत्वा तत्रोत्पद्यत इति ज्ञातव्यम् । अत्र निश्चयेन वीतरागचारित्रमुपादेयं सराग हेयमिति भावार्थः ।।६।।
उत्थानिका—जिस वीतरागचारित्र का मैंने आश्रय लिया है, वहीं वीतरागचारित्र प्राप्त करने योग्य अतीन्द्रिय सुख का कारण है, इससे ग्रहण करने योग्य है तथा सरागचारित्र अतीन्द्रिय सुख की अपेक्षा से त्यागने योग्य है, क्योंकि वह इन्द्रिय सुख का भी कारण है, इससे भी सरागचारित्र छोड़ने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं।
___ अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीवस्स) इस जीब के (दसणणाणप्पहाणादो) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्रधानता पूर्वक (चरित्तादो) सम्यकचारित्र के पालने से (देवासुरमणुयराय- विहवेहि) कल्पवासी, भवनत्रिक तथा चक्रवर्ती आदि राज्य को विभूतियों के साथ साथ (णिव्वाणं) निर्वाण (संपज्जइ) प्राप्त होती है !
प्रयोजन यह हैं कि-आत्मा के अधीन निज सहज ज्ञान और सहज आनन्द स्वभाव वाले अपने शुद्ध आत्म द्रव्य में जो निश्चलता से विकार-रहित अनुमति प्राप्त करना अथवा उसमें ठहर जाना सो ही है, लक्षण जिसका, ऐसे निश्चयचारित्र के प्रभाव से इन जीव के पराधीन इन्द्रियजनित ज्ञान और सुख से विलक्षण तथा स्वाधीन अतीन्द्रिय उत्कृष्ट ज्ञान और अनन्त सुख हैं लक्षण जिसका, ऐसा निर्वाण प्राप्त होता है तथा सराग चारित्र के कारण कल्पवासी देव, भवनत्रिकदेव, चक्रपती आदि की विभूति को उत्पन्न करने वाला मुख्यता से विशेष पुण्यबंध होता है तथा उससे परम्परा से निर्वाण प्राप्त होता है । असुरों के मध्य में सम्यग्दष्टि से उत्पन्न होता है? इसका समाधान यह है कि निदान करने के भाव से सम्यक्त्व को विराधना करके यह जीव भवनत्रिक में उत्पन्न होता है, ऐसा जानना चाहिये । यहाँ भाव यह है कि निश्चयनय से वीतरागचारित्र उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं तथा सरागचारित्र हेय अर्थात त्यागने योग्य है।
तात्पर्य यह है कि हमको मोक्ष का साधक निश्चयरत्नत्रयमयो वीतरागचारित्र को समझना चाहिये और व्यवहाररत्नत्रयमयी सरागचारित्र को उसका निमित्तकारण या परम्परा कारण समझना चाहिये।