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________________ पवयणसारो ] [ १७७ से विशुद्ध होता हुआ ( देहुन्भवं दुःखं खवेदि) देह के संयोग से उत्पन्न दुःख का नाश करते हैं । अर्थात् यह शरीर गर्म लोहे के पिण्ड समान है । उससे उत्पन्न दुःख का जो निराकुलता लक्षणमयी निश्चयसुख से विलक्षण है और बड़ी भारी आकुलता को पैदा करने वाला है, वह संयमी आत्मा लोहपिण्ड से रहित अग्नि के समान अनेक चोटों का स्थान जो शरीर उससे रहित होता हुआ नाश कर देता है, यह अभिप्राय है । इस तरह संक्षेप करते हुए तीसरे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुईं ऊपर लिखित प्रमाण शुभ तथा अशुभ की गूढता को दूर करने के लिये दश गाथाओं तक तीन स्थलों के समुदाय से पहली ज्ञान कंठिका पूर्ण हुई । अदि सर्वसाद्ययोगमतीत्य चरित्रमुपस्थितोऽपि शुमोपयोगानुवृत्तिवशतया मोहामूलयामि ततः कुतो मे शुद्धात्माम इति सर्वारम्भेणोत्तिष्ठते चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सहम्मि चरियम्मि' | ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सद्धं ॥ ७६ ॥ त्यक्त्वा पापारंभं समुत्थितो वा शुभे चरित्रे । न जहाति यदि मोहादीन्न लभते स भात्मकं शुद्धम् ।। ७६ ।। यः खलु समस्तसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणं परमसामायिकं नाम चारित्रं प्रतिज्ञाया पिशुभोपयोगवृत्त्या — काभिसारिकयेवाभिसार्यमाणो न मोहवाहिनीविधेयतामवकिरति सकिल समासन्न महाबुःखसङ्कटः कथमात्मानम विप्लुतं लभते । अतो मया मोहवाहिनीविजयाय बद्धा कक्षेयम् ॥७६॥ 1 भूमिका -- अब सर्व सावध ( सर्व पाप) योग को छोड़कर, चारित्र अङ्गीकार किया हो, तो भी यदि मैं शुभोपयोग परिणति के वश के कारण, मोहादि को उन्मूलन न करूं, मेरे शुद्ध आत्मा का लाभ कहां से होगा ? (अर्थात् नहीं होगा ) इस प्रकार विचार करके (मोहावि के उन्मूलन के लिये ) सर्वारम्भ (सर्व उद्यम- सर्व पुरुषार्थ ) से कटिबद्ध होता हूँअन्वयार्थ - [ पापारम्भं] पाप आरम्भ को [ त्यक्त्वा ] छोड़कर [ शुभे चारित्रे ] शुभ चारित्र में [ समुत्थितः ] उद्यत हुआ भी [ यदि ] यदि [ मोहादीन् ] मोह आदि को [न जहाति ] नहीं छोड़ता है तो [ स ] वह [ शुद्ध आत्मकं ] शुद्ध अत्मा को [ न लभते ] प्राप्त नहीं करता । टीका --- जो जीव वास्तव में समस्त - सावध (पाप) योग के प्रत्याख्यान (त्याग) स्वरूप परम सामायिक नामक चारित्र की प्रतिज्ञा करके भी धूर्त अभिसारिका ( शील-रहित स्त्री) की भांति शुभ उपयोग परिणति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त होता हुआ १. चरियम्हि (ज० वृ० ) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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