SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ ] [ पवयणसारो टीका----शुभ और अशुम भावों के अविशेष दर्शन से (समानता को श्रद्धा से) सम्यक प्रकार से जान लिया है वस्तु के स्वरूप को जिसने ऐसा जो जीव वास्तव में स्व और पर ऐसे दो विभागों में रहने वाले तथा (अपनी) समस्त पर्यायों सहित (क्तने वाले) ऐसे समस्त द्रव्यों में राग और द्वेष को सम्पूर्ण को ही (सर्वथा) छोड़ देता है, वह जीव वास्तव में, एकान्त से उपयोग की विशुद्धता (सर्वथा शुद्धोपयोगी होने) से जिसने पर द्रव्य का आलम्बन छोड़ दिया है, ऐसा वर्तता हुआ-लोहे के गोले में से लोहे के सार का अनुसरण न करने वाली अग्नि की भांति प्रचंड धन के आघात समान शारीरिक दु.ख का क्षय करता है। (जैसे अग्नि लोहे के गोले में से लोहे के सत्व को धारण नहीं करती इस लिये अग्नि पर प्रचंड घन के प्रहार नहीं होते, इसी प्रकार पर-द्रव्य का आलम्बन न करने वाले आत्मा को शारीरिक दुःख का वेदन नहीं होता) इस कारण से मेरे यही एक शुद्धोपयोग शरण है ॥७॥ तात्पर्यवृत्ति ___ अर्थवं शुभाशुभयोः समानत्वपरिज्ञानेन निश्चितशुखात्मतत्त्वः सन् दुःखक्षयाय शुद्धोपयोगानुष्ठानं स्वीकरोति एवं विविदत्थो जो एवं चिदानन्दकस्वभावं परमात्मतत्त्वमेवोपादेयमन्यदशेषं हेयमिति हेयोपादेयपरिज्ञानेन विदितार्थ तत्त्वों भूत्वा य दवेसु ण रागमेवि वोसं वा निजशुद्धात्मद्रव्यादन्येषु शुभाशुभसर्वद्रव्येषु राग द्वेषं वा न मच्छति उधोगविसुद्धो सो रागादिरहित शुद्धात्मानुभूतिलक्षणेन शुद्धोपयोगेन विशद्धः सन सः खयेवि देहुबभव सुक्खं तप्त लोहपिण्डस्थानीयदेहादुद्भवं, अनाफूलत्वलक्षणपारमाथिकसुखाद्विलक्षणं परमाकुलस्वोत्पादकं लोहपिण्डरहितोऽग्निरिव घनघातपरम्परास्थानीयदेहरहितो भूत्वाशारीरं दुःखं क्षपयतीत्यभिप्राय: एबमुपसंहाररूपेण तृतीयस्थले गाधाद्वयं गतम् ।।७।। इति शुभाशुभमूढत्वनिरासार्थ गाथादशकपर्यन्तं स्थलत्रयसमुदायेन प्रथमज्ञानकष्ठिका समाप्ता। उत्थानिका-इस तरह निश्चयनय से शुभ तथा अशुभ उपयोग को समान जानकर निश्चय शुद्धात्मतत्व होता हुआ संसार के दुःखों के क्षय के लिये शुद्धोपयोग के साधन को स्वीकार करता है, ऐसा कहते हैं । __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(एवं विदिदत्थो जो) इस तरह चिदानन्दमयो एक स्व. भाव रूप परमात्मतत्व को उपादेय तथा इसके सिवाय अन्य सर्व को हेय जान करके हेयोपादेय के यथार्थ ज्ञान से तत्त्व स्वरूप का ज्ञाता होकर जो कोई (बध्येसु ण राणमेदि बोसं वा) अपने शुद्ध आत्म द्रव्य से अन्य शुभ तथा अशुभ सर्व द्रव्यों में रागद्वेष नहीं करता है। (सो उवोगविसुद्धो) वह रागादि से रहित शुद्धात्म अनुभवमयी लक्षण बाले शुद्धोपयोग
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy