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________________ पश्यणसारो ] [ ४४७ एवात्मा स्वपरिणामानामेव कर्ता न च द्रव्यकर्मणामिति कथनमुख्यतया गाथासप्तकेन षष्ठस्थलं गतम् । इति 'अरसमरूवं' इत्यादिगाथासूत्रेण पूर्व शुद्धात्मव्याख्याने कृते सति शिष्येण यदूक्तममूर्तस्यात्मनो मुर्तकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति तत्परिहारार्थ नयविभागेन बन्धसमर्थनमुख्यतयकोनविंशतिगाथाभिः स्थलषट्केन तृतीयविशेषान्तराधिकार: समाप्तः । अत: परं द्वादश गाथापर्यन्तं चतुभिः स्थल: शुद्धात्मानुभूतिलक्षणविशेषभेदभावनारूपचूलिकाव्याख्यान करोति । तत्र शुद्धात्मनो भावना प्रधानत्वेन 'चयदि जो दु समत्ति' इत्यादिपाठक्रमेण प्रथमस्थले गाथा-चतुष्टयम् । तदनन्तरं शुद्धात्मोपलम्भभावनाफलेन दर्शनमोहनन्थिविनाशस्तथव चारित्रमोहग्रन्थिविनाश: क्रमेण तदुभयविनाशो भवतीति कथन मुख्यत्वेन 'जो एवं जाणित्ता' इत्यादि द्वितीयस्थले गाथात्रयम् । ततः परं केवलिध्यानोपचारकथनरूपेण 'णिहदघणघाइफम्मो' इत्यादि तृतीमा गाथाहगन्नादनात वा.नादिकालोपहारप्रधानत्वेन 'एवं जिणा बिणिदा' इत्यादि चतुर्थस्थले गाथाद्वयम् । ततः परं 'दसणसंसुद्धाणं' इत्यादि नमस्कारगाथा चेति द्वादशगाथाभिश्चतुर्थस्थले विशेषान्तराधिकारे समुदायपातनिका । उत्पानिका-आगे निश्चय और व्यवहार का अविरोध दिखाते हैं अन्बय सहित विशेषार्थ-(अरहंतेहि) अरहंतों के द्वारा (जवीण) यतियों को (जीवाणं) जीवों का (एसो बन्धसमासो) यह पूर्वोक्त प्रकार रागादि परिणतिरूप बन्ध का संक्षेप (पिच्छयेण णिहिट्ठो) निश्चयनय से कहा गया है । (यवहारो) व्यवहारनय से (अण्णहा) इससे अन्य जीव पुद्गल का बन्ध (भणिदो) कहा गया है । निर्दोष परमात्मा अरहंत हैं, उन्होंने जितेन्द्रिय तथा आत्मस्वरूप में यत्न करने वाले गणधरदेव आदि यतियों को निश्मयनय से जीवों के रागादि परिणाम को ही संक्षेप में बन्ध कहा है। व्यवहारनय से द्रव्य कर्म के बंध को बंध कहा है जो निश्चयनय की अपेक्षा अन्यथा है । यहाँ पर निश्चयनय का यही मत है कि यह मास्मा रागाविभाधों का हो कता और उन्हीं का भोक्ता है। द्रव्यकर्म-बंध को कहने वाले असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा निश्चयनय के वो भेद हैं। जो शुद्ध द्रव्य का निरूपण करे वह शुद्ध निश्चयनय है तथा जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करे वह अशुद्ध निश्चयनय है। आत्मा द्रव्यकों को करता है तथा भोगता है यह अशुद्ध द्रव्य को कहने व ला असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। इस तरह दोनों नयों से बंध का स्वरूप है। यहां निश्चयनय उपादेय है और असद्भुत व्यवहार हेय है। प्रश्न--आपने निश्चयनय से कहा है कि यह आत्मा रागादि भावों का कर्ता व भोक्ता है सो यह किस तरह उपादेय हो सकता है ? समाधान-जीव इस बात को जानेगा कि रागादि भावों को ही आत्मा करता है द्रव्यको को नहीं करता है तथा ये रागादिभाव ही बंध के कारण हैं, तब यह रागादि
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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