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पवयणसारो ]
[ ४५७ होता हुआ [परमात्मानं] परम आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [सः] वह [साकारः अनाकारः] साकार हो या अनाकार, [मोहदुथि ] मोह दुर्ग्रन्थि का [क्षपयति] क्षय करता है ।
टोका-इस यथोक्त विधि के द्वारा शुद्धात्मा को ध्रुव जानने वाले के, उसी में प्रवृत्त होने के कारण से, शुद्धात्मत्व होता है इसलिये अनन्तशक्ति वाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान होता है और इसलिये (उस ध्यान के कारण) साकार (सविकल्प) उपयोग वाले को या अनाकार (निर्विकल्प) उपयोग वाले को-दोनों को अविशेष रूप से एकाग्रसंचेतन को प्रसिद्धि होने से-अनादि संसार से बंधी हुई अतिढ़ मोहदुर्गथि छूट जाती है।
. इससे (यह कहा गया है कि) मोहग्रंथि भेद (दर्शन मोहरूपी गांठ का टूटना) शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल है ॥१४॥
तात्पर्यवृत्ति अथैव पूर्वोक्तप्रकारेण शुद्धात्मोपलम्भे सति किं फलं भवतीति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह
शादि ध्यायति जो यः कर्ता। कम् ? अप्पगं निजात्मानम् । कथंभूतम् ? परं परमानन्तज्ञानादिगणाधारत्वात्परमुत्कृष्टम् । किं कृत्वा पूर्वम् ? एवं जाणित्ता एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्वात्मोपलम्भलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा । कथंभूतः सन् ध्यायति ? विसुद्धप्पा ख्यातिपूजालाभादिसमस्तमनोरथजालरहितत्वेन विशुद्धात्मा सन् । पुनरपि कथंभूतः ? सागारोऽणागारो सागारोऽनागार: । अथवा साकारानाकारः । सहाकारेण विकल्पेन वर्तते साकारो ज्ञानोपयोगः, अनाकारो निविकल्पो दर्शनोपयोगस्ताभ्यां युक्त: साकारानाकारः । अथवा साकार: सविकल्पो गृहस्थः अनाकासे निर्विकल्पस्तपोधनः अथवा सहाकारेण लिङ्गन चिह्नन वर्तते साकारो यतिः अनाकारश्चिन्हरहितो गृहस्थः । खवेदि सो मोहदुर्गठि य एवं गुणविशिष्ट: क्षपयति स मोहदुर्घन्थिम् । मोह एव दुर्गन्थिः शुद्धात्मरुचिप्रतिबन्धको दर्शनमोहस्तम् । ततः स्थितमेतत्-आत्मोपलम्भस्य मोहनन्थिविनाश एव फलम् ।। १६४॥
उत्थानिका-आगे इस तरह शुद्धात्मा का लाभ होने पर क्या फल होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो सागारोऽणागारो) जो कोई श्रावक या मुनि (एवं जाणित्ता) ऐसा जानकर (परं अप्पगं) परम आत्मा को (विसुद्धप्पा) विशुद्धभाव रखता हुआ (मादि) ध्याता है (सो) वह (मोहदुग्गठि) मोह की गांठ को (खवेवि) नाश कर देता है। जो कोई गृहस्थ या मुनि अथवा साकार से ज्ञानोपयोगरूप, अनाकार से दर्शनोपयोग रूप होकर अथवा साकार से चिन्ह सहित मुनि या अनाकार से चिन्ह रहित गृहस्थ होकर इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण अपने आत्मा का लाभरूप स्वसंवेदनजान से जान करके परम अनन्त ज्ञानादि गुणों के आधार रूप होने से उत्कृष्ट रूप अपने हो आत्मा