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________________ पबयणसारो ] [ ३८३ हुआ, पुण्य और पाप रूप से द्विविधता को प्राप्त जो परद्रव्य उसके संयोग बन्ध के कारणरूप काम करता है। (उपराग मन्दकषायरूप और तीवकषायरूप से दो प्रकार का है, इसलिये अशुद्ध उपयोग भी शुभ, अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। उसमें से शुभोपयोग पुण्यरूप परद्रध्य के संयोग का (बंध का) कारण होता है और अशुभोपयोग पापरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है। किन्तु जब दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोग का अभाव किया जाता है, तब वास्तव में उपयोग शुद्ध हो रहता है और वह परद्रव्य के संयोग का अकारण ही है। (अर्थात् शुद्धोपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण नहीं है।) ॥१५६॥ तात्पर्यवृत्ति अथोपयोगस्तावन्नरकादिपर्यायकारणभूतस्य कर्मरूपस्य परद्रव्यस्य संयोगकारणं भवति । ताबदिदानी कस्य कर्मणः कः उपयोगः कारणं भवतीति विचारयति उवओगो जदि हि सुहो उपयोगो यदि चेत् हि स्फुट शुभो भवति । पुण्णं जीवस्स संचयं जादि तदा काले द्रव्यपुण्यं कर्तृ जीवस्य संचयमुपचयं वृद्धि याति बध्यत इत्यर्थः । असुहो वा तह पावं अशुभोपयोगो वा तथा तेनैव प्रकारेण पुण्यवध्यपापं संत्रयं याति तेसिमभावे ण चयमत्थि तयोरभावे न चयोऽस्ति । निर्दोषिनिजपरमात्मभावनारूपेण शुद्धोपयोगबलेन यदा तयोर्द्वयोः शुभाशुभोपयोगयोरभावः क्रियते तदोभयः संचयः कर्मबन्धो नास्तीत्यर्थः ।। १५६।। । एवं शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयस्य सामान्यकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका—आगे फिर कहते हैं कि जब यह अशुद्ध उपयोग ही नरनारकादि पर्यायों के कारण रूप पर द्रव्यमयी पुद्गलकर्म के बंध का कारण होता है, तब किस कर्म का कौन उपयोग कारण है अन्वय सहित विशेषार्थ-(हि) निश्चय से (जदि) यदि (उवओगो) उपयोग (सुहो) शुभ हो तो (जीवस्स) इस जीव के (पुण्णं) पुण्यकर्म का (संचयं जादि) संचय होता है (वा) अथवा (असुहो) अशुभ हो तब (पावं) पाप का संचय होता है। (तेसिमभावे) इन शुभ अशुभ उपयोगों के न होने पर (च्यं) संचय (ण अस्थि) नहीं होता है। जब शुभ उपयोग होता है तब इस जीव के द्रव्य पुण्यकर्म का संचय, उपचय व वृद्धि व बन्ध होता है और जब अशुभोपयोग होता है तो द्रव्य पाप का संचय होता है, इन दोनों के अभाव में पुष्य पाप का बंध नहीं होता है अर्थात् जब दोष-रहित निज परमात्मा की भावना रूप से शुद्धोपयोग के बल के द्वारा दोनों ही शुभ अशुभ उपयोगों का अभाव किया जाता है तब दोनों ही प्रकार के कर्मबंध नहीं होते हैं ॥१५६॥ भावार्थ--स्वामी अमितगति वृहद् सामायिकपाठ में कहते हैं-- पूर्व कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्यं शुभं निर्मितं । विज्ञायेत्यशुभं निहतु-मनसो ये पोषयंते तपः॥ जायंते समसंयमैकनिधयस्ते दुर्लभा योगिनो। ये त्वतोभयकर्मनाशनपरास्तेषां किमत्रोच्यते ॥६॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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