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________________ पवयणसारो ] [ ४६३ किया है उसी के अनुसार दीक्षाचार्य श्रमणार्थी को मुनिदीक्षा की विधि बतलाकर दीक्षा देते हैं और श्रमणार्थी मुनि अंतरंग व बहिरंग लिंग को ग्रहण करके मुनि हो जाता है । अरहंत भगवान व आचार्य की भावना भावता हुआ इतना तन्मय हो जाता है कि भाथ्यभावक (जिसको भावना की जाय वह भाव्य और भावना करने वाला भावक) भाव में भेद नहीं रहता । यही भाव-नमस्कार भाव-स्तुति और माव-वन्दना है।] पश्चात् सर्वसावायोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महावत को सुनने रूप श्रुतज्ञान के द्वारा समय में परिणमित होते हुये आत्मा को जानता हुआ सामायिक में आरूढ होता है । पश्चात् प्रतिक्रमण-आलोचना-प्रत्याख्यानस्वरूप क्रिया को सुनने रूप श्रुतज्ञान के द्वारा कालिक कर्मों से भिन्न किये जाने वाले आत्मा को जानता हआ, अतीत अनागत वर्तमान मन-वचन-फाय सम्बन्धी कर्मों से विविक्तता (भिन्नता) में आरूढ़ होता है । पश्चात् समस्त सावध कर्मों के आयतनभूत काय का उत्सर्ग (उपेक्षा) करके यथाजात रूप वाले एक स्वरूप को, एकाग्रता से अवलम्बित करके रहता हुआ उपस्थित होता है और उपस्थित होता हुआ सर्वत्र समवृष्टित्व के कारण साक्षात् श्रमण होता है ॥२०७॥ तात्पर्यवृत्ति ___ अथैतल्लिङ्गद्वैतमादाय पूर्व भाविनैगमनयेन यदुक्त पंचाचारस्वरूपं तदिदानी स्वीकृत्य तदाधारेणोपस्थितः स्वस्थो भूत्वा श्रमणो भवतीत्याख्याति; आदाय तं पि लिङ्ग आदाय गृहीत्वा तत्पूर्वोक्तं लिङ्गद्वयमपि । कथंभूतं ? दत्तमिति क्रियाध्याहारः । केन दत्तम् ? गुरुणा परमेण दिव्यध्वनिकाले परमागमोपदेशरूपेणाईट्टारकेण । दीक्षाकाले तु दीक्षागुरुणा, लिङ्गग्रहणानन्तरं तं णमंसित्ता ते गुरु नमस्कृत्य सोच्चा तदनन्तरं श्रुत्वा । काम् ? किरियं क्रियां बृहत्प्रतिक्रमणाम् । कि विशिष्टाम् ? सवदं सव्रतां व्रतारोपणसहिताम् । उठ्दिो ततश्चोपस्थितः स्वस्थः सन् होवि सो समणो स पूर्वोक्तस्तपोधन इदानीं श्रमणो भवतीति । इतो विस्तरः- पूर्वोक्तलिङ्गद्वयनणानन्तरं पूर्वसूत्रोक्तपंचाचारमाश्रयति ततश्चानन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण भावनमस्कारेण तथैव तद्गुणप्रतिपादकवचनरूपेण द्रव्यनमस्कारेण च गुरु नमस्करोति । ततः परं समस्त शुभाशुभपरिणामनिवृत्तिरूपं स्वरूपे निश्चलावस्थानं परमसामायिकब्रतमारोहति स्वीकरोति । मनोवचनकार्यः कृतकारितानुमतश्च जगत्त्रये कालत्रयेऽपि समस्तशुभाशुभकर्मभ्यो भिन्ना निजशुद्धात्मपरिणतिलक्षणा या तु क्रिया सा निश्चयेन बृहत्प्रतिक्रमणा भण्यते व्रतारोपणानन्तरं तां च शृणोति । ततो निर्विकल्पं समाधिवलेन कायमुत्सृज्जोपस्थितो भवति, ततश्चैवं परिपूर्णश्रमणसामग्रयां सत्यां परिपूर्णश्रमणो भवतीत्यर्थः ।।२०७।। एवं दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथासप्तकं गतम् ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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