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________________ पवयणसारो ] [ २६७ रणारयतिरियसुरा जीवा नरनारकतिर्यक् सुरनामानो जीवाः सन्ति तावत् खलु स्फुटं । कथम्भूताः ? णामकम्मणिव्वत्ता नरनारकादिस्वकीयस्वकीयनामकर्मणा निवृत्ताः ण हि ते लद्धसहावा किन्तु यथा माणिक्यवद्धसुवर्ण कङ्कणेषु माणिक्यस्य हि मुख्यता नास्ति, तथा ते जीवाश्चिदानन्दैकशुद्धात्मस्वभावमलभमानाः सन्तो लब्धस्वभावा न भवन्ति तेन कारणेन स्वभावाभिभवो भव्यते, न च जीवाभावः । कथम्भूताः सन्तो लब्धस्वभावा न भवन्ति ? परिणममाणा सम्माणि स्वकीयोदयागतकर्माणि सुखदुःखरूपेण परिणममाना इति । अयमत्रार्थः - यथा वृक्षसेचनविषये जलप्रवाहश्चन्दनादिवनराजिरूपेण परिणतः सन्स्वकीयकोमलशीतलनिर्मलादिस्वभावं न लभते तथायं जीवोऽपि वृक्षस्थानीय कर्मोदयपरिणतः सम्परमाह्लादैकलक्षण सुखामृतास्वादनैर्मल्यादिस्वकीयगुणसमुहं न लभत इति ॥ ११८ ॥ उत्थानका — आगे शिष्य ने प्रश्न कियाकि नरनारकादि पर्यायों में किस तरह जीव के स्वभाव का तिरस्कार हुआ है। क्या जीव का अभाव हो गया है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं से अन्वय सहित विशेषार्थ - ( भरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, नारकी, तिथंच और देव पर्याय में तिष्ठने वाले ( जीवा ) जीव ( खलु ) प्रगटपने ( णाम कम्मणिवत्ता ) नामकर्म द्वारा उन गतियों में रचे ( जीवा ) जीव की ( णरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, नारकी, तियंच और देव पर्यायें ( खलु) प्रगटपते ( णाम कम्मणिव्वत्ता) नामकर्म द्वारा रची हैं। इस कारण (ते) वे जीव ( सम्माणि परिणममाणा ) अपने-अपने कर्मों के उदय में परिणमन करते हुए (लद्धसहावा ण हि ) अपने स्वभाव को निश्चय नर, नारक, तिर्यंच, देव इन चार प्रगट गति रूप होता है, नर नारकादि नामकर्म के द्वारा रखी गई हैं । ये अपने-अपने उदय प्राप्त कर्मों के अनुसार सुख तथा दुःख को भोगते हुए अपने चिदानन्दमयी एक शुद्ध आत्म-स्वभाव को नहीं पाते हैं। जैसे माणिक जड़ित सुवर्ण-कंकण में माणिक की मुख्यता नहीं है, उसी तरह इन नर नारकादि पर्यायों में जीव-स्वभाव का तिरस्कार है । इससे जीव का अभाव नहीं हो जाता है । इसका यह भाव है जैसे जल का प्रवाह वृक्षों के सोचने में परिणमन करता हुआ चन्दन व नीम आदि बन के वृक्षों में जाकर उन रूप मीठा, कडुवा, सुगन्धित, दुर्गंधित होता हुआ अपने जल के कोमल, शीतल, निर्मल स्वभाव को नहीं रखता है, इसी तरह यह जीव भी वृक्षों के स्थान में कर्मों के उदय के अनुसार परिणमन करता हुआ परमानन्द रूप एक लक्षणमय सुखामृत का स्वाद तथा निर्मलता आदि अपने निज गुणों को नहीं प्राप्त करता है ॥ ११८ ॥ नहीं प्राप्त होते हैं । जीव क्योंकि ये गतियां अपने-अपने
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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