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________________ पचयणसारो ] t इस प्रकार से अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और समस्त साधुओं को प्रणाम व वंदना के नाम ये प्रवृत्ति में आये हुये विविधतारूप देत द्वारा भारत-भारक, भाराध्यआराधक भाव से वृद्धिङ्गत अतिशय गाढ़ आपस में एक-मेक हो जाने के बल से समस्त स्व-पर भेद के विलीन हो जाने पर जिसमें अद्वैतभाव ( एकत्व या अभेद ) आ चुका है, ऐसे अद्वैत नमस्कार को करके उन्हीं अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सब साधुओं के निर्मल ज्ञान व दर्शन की प्रधानता से स्वभावतः शुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभावरूप आत्मतत्व के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन और उसी के अवबोधरूप सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कराने वाले आश्रम को प्राप्त करके स्वयं सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न सम्पत्तिशाली होता हुआ, कुछ काय के अंश के जीवित रहने से पुण्यबन्ध की प्राप्ति के कारणभूत सरागचारित्र के क्रम में आ पड़ने पर भी उसको दूर लांघकर समस्त कषाय रूप कलि-कलंक से भिन्न होने के कारण जो वीतरागचारित्र नामक समताभाव मुक्ति प्राप्ति का कारणभूत है, उसका आश्रय लेता हूँ — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकाग्रता को प्राप्त हुआ है, इस प्रकार प्रतिज्ञा का अभिप्राय है । इस प्रकार यह साक्षात् मोक्षमार्ग को प्राप्त हुआ है ।।४-५।। विशेषार्थ - यहाँ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ने मुक्ति के कारण-भूत प्रवचनसार नामक इस ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम उन अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार किया है, जिनका वर्तमान में तीर्थ चल रहा है। इसके पश्चात् उन्होंने आदिनाथ प्रभूति उन शेष तेईस तीर्थंकरों को भी नमस्कार किया है, जिनका तीर्थ यथासमय भूतकाल में चलता रहा है। साथ ही उन्होंने सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और सर्वसाधुओं को भी नमस्कार किया है । अनन्तर उन्होंने मनुष्य लोक में वर्तमान सब ही अरहंतों की समुदाय रूप में और पृथक्-पृथक् भी वंदना की है। अन्त में उन्होंने यह प्रतिज्ञा की है कि इस प्रकार से मैं अरहंतों, सिद्धों, गणधरों और अध्यापक वर्ग के रूप में आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं को भी नमस्कार करके उनके विमल दर्शन - ज्ञानादिस्वरूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त कराने वाले आश्रम का आश्रय लेकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और वीतरागचारित्र से सम्पन्न होता हूँ । सरागचारित्र संवर निर्जरा के साथ पुण्य अन्ध का भी कारण है और मोक्ष का परम्परा कारण न होने से उन्होंने उसकी उपेक्षा की है और साम्य नाम से प्रसिद्ध एक वीतरागचारित्र से अपने को सम्पन्न - सम्पत्तिशाली बतलाया है, कारण कि परमानन्द स्वरूप मुक्ति का कारण एकमात्र यही है । इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रतिज्ञा का अभिप्राय सूचित किया है कि मैं जो
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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