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________________ [ पवयणसारो परमेष्ठियों के [विशुद्ध-दर्शन-ज्ञानप्रधानाश्रमम् ] निर्मल ज्ञान-दर्शन की प्रधानता-वाले आश्रम को [समासाद्य] प्राप्त करके [साम्यम् | समताभाव स्वरूप वीतरागचारित्र का [उपसम्पद्ये] आश्रय लेता हूँ [यतः] जिसकी सहायता से [निर्वाणसम्प्राप्तिः] मुक्ति की प्राप्ति होती है ॥४-५॥ टोका-स्व-संवेदन प्रत्यक्ष का विषयभूत होकर दर्शन-ज्ञानरूप सामान्य स्वरूप धाला यह भ पुन्य कुन्धावाय) सर्व प्रधान उन परम भट्टारक, देवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य एवं निर्मल कीतियाले श्री वर्धमान देव को प्रणाम करता है, जो वर्तमानमें चल रहे तीर्थ के नायक सुरेन्द्र, धरणेन्द्र और नरेन्द्रों (तीनों लोकों के अधिपतियों से) से वन्दित होने के कारण तीनो लोकों के अद्वितीय गुरु, घातियाकर्मरूप मलके धो डालने से समस्त लोक के अनुग्रह करने में समर्थ ऐसी अनन्त शक्तिरूप सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्य से सुशोभित योगीजनों के तीर्थ होने से उनके तारने में समर्थ, और धर्म के प्रवर्तक होने से शुद्ध स्वरूपवाली प्रवृत्ति के विधाता (कर्ता) हैं ॥१॥ तत्पश्चात्-श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करने के अनन्तर-विशुद्ध स्वभाव वाले होने से जिस प्रकार प्रथमादि सोलह तावों को प्राप्त उत्तम जाति के सुवर्ण को अन्तिम ताव से उतारने पर वह अपने विशुद्ध व निर्मल स्वभाव को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो उस सुवर्ण के समान विशुद्ध दर्शन-शान रूप स्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं, ऐसे अतीत तीर्थ के शेष अधिनायकों को (वृषभादि पार्श्व पर्यन्त तेईस तीर्थंकरों को) सब सिद्धों को, तथा ज्ञानाचार दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार और वीर्याचार रूप पाँच प्रकार के आचारों से युक्त होने के कारण जिनके अतिशय शुद्ध उपयोग की भूमिका की सम्भावना हो चुकी है, अर्थात् जो शुद्ध उपयोग की प्राप्ति के अभिमुख हैं, ऐसे आचार्य उपाध्याय और साधुत्य विशेषणों से भेव को प्राप्त हुए श्रमणों को-निग्रन्थ गुरुओं को भी प्रणाम करता हूँ ॥२॥ तत्पश्चात् विविध व्यक्तियों में व्याप्त रहने वाले इन्हीं पांचों परमेष्ठियों का मैं इस समय इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों को सम्मावना के न होने पर भी विदेहक्षेत्र में तो उनकी सम्भावना है ही, अतः मनुष्यक्षेत्र-वर्ती (अढाईद्वीपस्थ पन्द्रह कर्मभूमियों में वर्तमान) तीर्थंकरों के साथ वर्तमान काल को विषयभूत करके वर्तमान काल में अवस्थित जैसे मानकर समुदायरूप मैं उन सबको साथ-साथ तथा पृथक-पृथक रूप से भी मोक्षलक्ष्मी के स्वयंवर-स्वरूप उत्कृष्ट जिनदीक्षा-कल्याणक के अवसरोचित मंगलाचरणभूत कृतिकर्म नामक शास्त्र में प्ररूपित वंदना के नाम से सम्भावना करता हूँ--उसके प्रति प्रमाणावि के रूप में आदर व्यक्त करता हुआ आराधन करता हूँ ॥३॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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